Sunday, 28 June 2015

समय से हारा नहीं मैं ..


समय से हारा नहीं मैं
लड़ता रहा आखिरी उम्मीद तक
इक्छाओं  और उम्मीद के पंख
मुझे सूर्य की तरफ उड़ाते ले गए
इक्छा  का एक पंख झुलस गया
उम्मीद का एक पंख बाकी रहा
तेज हवा के झोके ने जमीं पर ला पटका
मैं फिर से उड़ा
उम्मीद के एक पंख के सहारे
उड़ते उड़ते इक्छा  का पंख
फिर से उग आया
ये अबके चाँद पर ले गया
चाँद की ठंडक ने इसे जकड लिया
मैं  फिर से जमीं पर आ गिरा
अब जमीं के समतल उड़ता हूँ
सिर्फ उम्मीद के पंख के बल
इक्षा का पंख जब तब ही जाता है
समय से हारा नहीं मैं
पठारों से टकराया , गिरता रहा
लड़ता रहा , उड़ता रहा

समय से हारा नहीं मैं ...

............निशान्त यादव 

Wednesday, 24 June 2015

असाढ़ की बारिश ....



असाढ़ की ये बारिश गर्मी की तपन से जब तब राहत देती जा रही है डेल्ही में तेज हवा अपने साथ पानी के बादल भी लेती आई है बारिश में घिर जाने  की जल्दी में लपक के लिफ्ट पकड़ के नीचे उतर लिए हम मानव भी कितने अजीब है जब नहीं होती तब हाय बारिश चिल्लाते है और जब आगई तो बच के घर पहुचने की जल्दी रहती है लिफ्ट से उतरते ही सड़क पर खड़ी कैब की अगली सीट पे लद् से कब्जा जमा लिया विंडो सीट पर बैठने की जिद बचपन से ही पैदा हो  गई  है गर्मी में तो सड़क की तरफ देखने का मन भी नहीं करता नागिन सी लगती है पर इस बारिश में ठंडी हवा और नजारो का मोह कौन छोड़े, सड़क पर हर कोई जल्दी पहुचने की जल्दी में  है जाना सब को घर ही है पर जल्दी सब को  है शायद घर पर पहले ही अपनी माँ या पत्नी को  चाय पकोड़ी का फरमान दे दिया होगा । और जो अकेले है वो तले अकेले हमारी तरह ...

कार के आगे वाले सीसे पर बूँद टप टप करती हुई बरस रही है ड्राईवर बार बार  वाइपर चला देता है
यहाँ प्रकृति और इंसानी मशीन के बीच घमासान चल रहा है बूँद तो पीछे हटने को तैयार नहीं और ये वाइपर ! इसका तो बटन इंसान के हाथ में है तो ये तो हार मानने से रहा खेर बादलो ने अपनी बूँद को बापिस बुला लिया है और इधर वाइपर भी बंद है एक दो छिटपुट बूँद ही गिर रही है इधर अपोलो के पास मक्का के भुंटे बेंचने वाले अपना सामान समेटकर अपने अपने हिसाब से बारिश से बचने की जुगत में है लेकिन भुंटे की खुशुबू  अब तक उनके भुने होने की खवर दे रही है
इधर ड्राइवर 1990 के दशक के सोनू निगम के गाने बजा रहा है

"कोई उनसे कह दो सफ़र आखिरी है
वो मेरा जनाजा उठाने लगे है "

ड्राइवरों की भी अपनी अलग दुनिया है हम लाख संगीत प्रेमी होने का दावा करते रहे है लेकिन इनसे ज्यादा नहीं हो सकते । इनसे  ज्यादा संगीत प्रेमी इस  दुनिया में गीतकार या संगीतकार ही होता होगा
खेर लिखते लिखते यमुना जी के पुल पे आगये है मै  रोज इधर से आता जाता हूँ और जब मेरा ध्यान यमुना जी के जल पर जाता है मन में पहले क्रोध फिर हताशा  के भाव आजाते है  आखिर हमने अपनी जीवनदायनी नदियों को भी नहीं बक्शा यमुना जी का पानी ऐसा की आप सूंघ ले तो बीमार हो जाये  । हम धर्म और आस्था के नाम पर मरने मारने को तैयार होते है लेकिन खुद ही उस आस्था की धज्जियां उड़ा रहे हैं
एक तरफ यमुना पर अरबो की मेट्रो चलाने की तैयारी है लेकिन जो सरकार का  गंगा यमुना सफाई का
मंत्रालय है  शायद पैसे के अभाव में जी रहा है  योग पर करोडो खर्च करने वाली सरकार से कोई ये पूंछे जव पानी और हवा ही साफ नहीं होंगे तो अनुलोम विलोम में क्या खाक साँस शुद्द होगी

अब ये बत्ती भी लाल हो गई रुकने का इशारा कर रही है सब रुके है तमाम कारों, मोटरसाइकिल और पैदल आदमियोँ की भीड़ है और इधर कैब में गाना बज रहा है

"जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले है
भीड़ है कयामत की फिर भी हम अकेले हैं"

यहाँ शहर में हर कोई अकेला ही है  कहता कोई नहीं है
कैब जहाँ उतारती है वहां से घर तक की दूरी लगभग एक किलो मीटर है सो पैदल ही चल लेते है घर जाते रास्ते में जामुन का बाग पड़ता है नोएडा अथॉरिटी के पार्क में ही है बारिश के बाद ये जामुन पेड़ भीनी भीनी सुगंध देते है और में आँख बंद कर इसकी खुशबु की रौ में बहता हुआ गावँ के बाग़ में पहुँच जाया करता हूँ
बाग के सामने ही ये दो चालीस मंजिल इमारते सखियो सी खड़ी है इनका मालिक मंजिल दर मंजिल बनाता ही जा रहा है  इनकी सुरक्षा में दो गार्ड चचा तैनात है क्यों की अभी इनमे बस्ती नहीं बसी है । हालाकिं सुरक्षा तो तब भी होगी लेकिन इनकी नहीं इसमें रहने वाले इंसानो की होगी
जब गावँ में  थे तब ये बाग और खुशबु समझ नहीं आती थी लेकिन जबसे इन सब से दूरी बढ़ी है इनकी याद कहीं न कहीं मुझसे टकरा ही जाती है किसी ने सच कहा है दूर रहने के बाद यादों में कशिश और बढ़ जाती है खेर अब चलता हूँ  आप इलायची वाली चाय का मजा लीजिये शुभः संध्या!

Sunday, 21 June 2015

पिता दिवस पर मेरी यादें (Father's Day)


योग दिवस की खुमारी से निकल कर जब होश आया तो गूगल फेसबुक और ट्वीटर ने खवर दी की आज पिता दिवस है अब इस जानकारी के न होने को में अपना अज्ञान समझता हूँ ये तो भला हो इन सोशल मिडिया बालो का जो ये किसी भी दिन को भूलने नहीं देते है वर्ना हमें तो वही दिवस याद रहते जिनकी की छुट्टी हो मेरा वश चले तो में हर दिन इन रिश्तों के नाम कर दूँ 
हमारी नयी पीढ़ी के लड़के तो अपने बच्चों के साथ पिता और दोस्त दोनों रिश्ते में रहते है लेकिन हमारे पिता ऐसे नहीं होते 
उनका लहजा सख्त लेकिन ह्रदय में असीम प्रेम लिए रहता है मेरे पिता  अध्यापक से रिटायर हो चुके है अब वक्त के साथ काफी नरम लहजे के हो गए है लेकिन पहले बड़े सख्त थे मुझे याद है बचपन में  मेरी बड़ी बहन और भाई टीवी या रेडियो चला रहे होते थे तव हमारा एक कान दरवाजे की कुण्डी पर ही रहता है जैसे ही 1:30 पर कुण्डी बजी सब बंद और एक दम छम्म से शांत लेकिन फिर भी वे समझ जाते थे हमें जव भी कुछ मांगना होता था तब हम माँ के कान में फ़ुसफ़ुसाया करते थे लेकिन पिता को पता चल जाता था वो बुलाते और बोलते क्या चाहिए लेकिन हमारी जुवान फिर भी नहीं खुलती थी फिर माँ ही कह दिया करती और हमारा काम हो जाता था, ये सब  डर या ख़ौफ़ नहीं था ये बस उस समय के हिसाव से उनका स्वभाव ही था आज बही पिता समय के बदलते परिवेश में दोस्त बन गए है 
दरअसल माँ हमारी प्रथम गुरु होती है लेकिन पिता हमें सही दिशा देते है वे पथप्रदशक होते हैं हम सामाजिक ताने वाने को पिता के पदचिन्हों पर चल कर ही सीखते है पिता हमारे जीवन में उस विशाल व्रक्ष की तरह है जिसकी मजवूत डालियों पर हम झूला डाल कर बचपन जीते है उसके पत्ते की छाँव हमें तेज धुप से बचाती हुई सुख की नींद देती है और जीने के लिए हमारी साँसों में ऑक्सीजन भर देती है इस लिए पिता हमारे जीवन का आधार होते है

हमारे यहाँ भादों के महीने में मेला लगता है पिता जी अपने मजवूत कंधो पर हमें मेले की सेर कराया करते थे और मैं उनके कंधो पर बैठा हुआ सातवे आसमान पर होना महसूस करता था ऐसा लगता है जैसे में  दुनिया के  सबसे ऊँचे स्थान पर बैठा हूँ पिता जी रोज मुझे साईकिल के आगे डंडे पर बिठा बाजार और स्कूल ले जाया करते थे कभी गंगा जी नहाने जाते थे तो वे डंडे पर कपडा लपेटकर बैठने के लिए गद्देदार बना दिया करते थे ताकि लम्बी दुरी में डंडा चुभे नहीं , पीछे कैरियर पर  में बैठता नहीं था क्योकि पीछे बैठ कर आगे का कुछ दिखता नहीं था . धीरे धीरे में बड़ा होता गया और पिता उम्र के बढ़ते पड़ाव में , और फिर पीछे कैरियर पर बैठने लगा , जब पिता जी मुझे खींचते हुए थक जाते तो कहते तुम अब भारी हो गए हो , मै कहता चलो में चलाता हूँ आप बैठो लेकिन पिता जी ने मुझे कभी ऐसा नहीं करने दिया  , मै साईकिल चलाना भी पिता से ही सीखा .. 

कई बार हम पिता से और पिता हमसे अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाते , ये कसक हर बार मुझे रहती है हम पिता के चरण तो छु लेते है लेकिन कभी गले नहीं लग पाते है बचपन में पिता की गोद में खेले जरूर है लेकिन बड़े होकर जो सुख पिता के गले लगने का है वो कहीं नहीं , मै खुद कभी ये हिम्मत नहीं कर पाया , ये गले लगने का सुख सिर्फ मेरी कल्पना है ये कल्पना मै एक दिन साकार जरुरु करूँगा , आप करिये और पिता के गले लगते हुए आई लव यू पापा कहिये और फिर बताइये आप को कितना सुख मिला ..  मुझे आज कवि ओम व्यास जी की पिता पर ये कविता याद गई ..आप  सब ने इसे कई बार पढ़ा होगा आज भी पढ़िए और अपने पिता से गले जरूर मिलिए  आप सब की भी पिता से जुडी तमाम यादें होंगी आज के दिन आप सब यादों को यहाँ कहिये ,, धन्यवाद

पिता, पिता जीवन है, सम्बल है, शक्ति है,
पिता, पिता सृष्टि में निर्माण की अभिव्यक्ति है,

पिता अँगुली पकडे बच्चे का सहारा है,
पिता कभी कुछ खट्टा कभी खारा है,

पिता, पिता पालन है, पोषण है, परिवार का अनुशासन है,
पिता, पिता धौंस से चलना वाला प्रेम का प्रशासन है,

पिता, पिता रोटी है, कपडा है, मकान है,
पिता, पिता छोटे से परिंदे का बडा आसमान है,

पिता, पिता अप्रदर्शित-अनंत प्यार है,
पिता है तो बच्चों को इंतज़ार है,

पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं,
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं,

पिता से परिवार में प्रतिपल राग है,
पिता से ही माँ की बिंदी और सुहाग है,

पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ति है,
पिता गृहस्थ आश्रम में उच्च स्थिति की भक्ति है,

पिता अपनी इच्छाओं का हनन और परिवार की पूर्ति है,
पिता, पिता रक्त निगले हुए संस्कारों की मूर्ति है,

पिता, पिता एक जीवन को जीवन का दान है,
पिता, पिता दुनिया दिखाने का अहसान है,

पिता, पिता सुरक्षा है, अगर सिर पर हाथ है,
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है,

पिता नहीं तो बचपन अनाथ है,
तो पिता से बड़ा तुम अपना नाम करो,
पिता का अपमान नहीं उनपर अभिमान करो,

क्योंकि माँ-बाप की कमी को कोई बाँट नहीं सकता,
और ईश्वर भी इनके आशिषों को काट नहीं सकता,

विश्व में किसी भी देवता का स्थान दूजा है,
माँ-बाप की सेवा ही सबसे बडी पूजा है,

विश्व में किसी भी तीर्थ की यात्रा व्यर्थ हैं,
यदि बेटे के होते माँ-बाप असमर्थ हैं,

वो खुशनसीब हैं माँ-बाप जिनके साथ होते हैं,
क्योंकि माँ-बाप के आशिषों के हाथ हज़ारों हाथ होते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस #InternationalDayofYoga


सबसे पहले योग दिवस के सफल आयोजन पर बधाई । स्वछता अभियान की तरह इस योगाभियान की शुरुआत भी एक दम धाकड़ तरीके से हुई प्रधानमंत्री जी ने खुद राजपथ पर पर उतरकर सबके साथ पूरे तन मन से योग किया है जिस राजपथ पर सेना के बूटों और गाड़ियों की धमक सुनाई देती थी वहां आज योग की गूँज सुनाई दी और राजपथ योग पथ हो गया और पुतिन साहव को उनका का जवाव भी मिल गया होगा जिस तरीके से प्रधानमंत्री जी ने इक्कीसों योगासन और प्राणायाम निपुणता से किये उतना तो आज अपन पार्क में कर ही नहीं पाये पीछे झुकने बाले आसान में झुक नहीं पाये और आगे बाले में मुड नहीं पाये और जब कपालभाति करने को ध्यानमुद्रा लेनी चाहिए तो कमबख्त पैर एक दूसरे के ऊपर नहीं चढ़े फिर पलोति मार के ही काम चलाया एक साँस अंदर बाहर करते हुए फुसर फुसर किया । जो आसान अपन कर पाये वो थे शवासन और भ्रामरी जिनमे एक में आपको एक दम चैन से लेटना होता है और दूसरे में सिर्फ आँख बंद करके अपने अंदर से ॐ नुमा आवाज निकालनी होती है
प्रधानमंत्री जी का एकदम निपुणता से योग करना ये दर्शाता है की वे इसे नित्य प्रतिदिन करते हैं आज राजपथ पर केजरीवाल साहव भी पहुंचे उन्होंने भी योग में हाथ आजमाए
देश के नेताओं का किसी देशहित में एक साथ आना अच्छा तो है लेकिन ये अक्सर होते रहना चाहिए उम्मीद है स्वछ भारत अभियान की तरह इस योगाभियान में नेता सिर्फ फ़ोटो खिंचवाकर अभियान के हवा नहीं निकालेंगे हालांकि आज भी कोई सफारी सूट में योग का नाटक करते दिखा या फिर आसन के नाम पर सिर्फ हाथ हिलाता दिखा
खेर जिसे जो करना है करे और न करे आइये हम लौटते है पार्क की तरफ । कल तक जो RSS के प्रचारक जी स्वतंत्र संगठन का दम्भ भर रहे थे वे आज कम संख्याबल की मज़बूरी में बाबा जी के बैनर तले आ ही गए लेकिन अपनी खाकी वर्दी में ताकि लोग उनकी प्रतीकात्मकता को नजरअंदाज न करें । इक्कीसों योग क्रिया जैसे तैसे निपटाने के बाद सबसे विदा ली और जैसे ही पार्क के गेट पर आये उधर से तेज आंधी धुल का गुवार लेकर आ धमकी और हम उसकी धमक के डर से घर की तरफ लपके लेकिन आँधी ने धर ही लिए , अपने साथ लायी धुल और प्लास्टिक की पन्नियों के गुबार को गाल पे जड़ते हुए बोली जाते कहाँ हो अब में तुम्हे योगा करबाउंगी । हमने जितनी दूषित वायु योग के दौरान बाहर निकाली सब की सब फिर से अंदर समा गई
हमने मन ही मन कचरा फैलाने बालो को कोसा जो की हम सब अक्सर करते है गंदगी खुद फैलाएं और गाली दे सफाई करने बालो को । इस लिए साथिओं हो सके तो ये कचरा बचरा कम फैलाया करो वर्ना ये योग फ्योग सब बेकार है
चलिए आज इतवार है वीकेंड है मौसम भी आज अच्छा है जाइये पकोड़े खाइये और शाम को क्या पीना है ये यहाँ नहीं बताऊंगा मै चला आठ दिन से पड़े गंदे कपडे धोने
शुभः दिन जय ! योगा

Thursday, 18 June 2015

भ्रष्टाचारी वादल और कड़क लोकपाल सूर्य देव (व्यंग)




पिछले कुछ दिनों की गर्मी से त्रस्त होकर हम आम आदमिओं ने भ्रष्टाचारी  वादलो को  हाय गर्मी हाय गर्मी करते हुए रिश्वत की पेशकश की ,हमारी रिश्वत को  स्वीकार करते हुए वादलो ने वर्षा कर दी और हमें कड़क लोकपाल सूर्य की तेज निगाहों से बचा कर रखा , लेकिन उधर हमारे ही कुछ आम आदमी जैसे लस्सी वाला , कोल्ड्रिंक वाला , खुली बर्फ बेचने  वाला , कुल्फी वाले आदि लोगो ने लोकपाल सूर्य से शिकायत कर दी , जैसे ही उधर शिकायत पहुंची , कड़क लोकपाल महामहिम सूर्यदेव एक हाथ में तेज धूप और एक हाथ में सड़ी गर्मी का हंटर लिए हुए भगे चले आये , महामहिम का ये रोद्र रूप देख भ्रष्टाचारी  वादळ गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए आसमान में समा गए और ये हंटर अब पिछले दिनों से हम पर रोज बरस रहे हैं हम भी आम आदमी ठहरे हंटर की मार से बचने की जुगत में कभी ठन्डे पानी की बोतल अपने ऊपर उड़ेल लेते है तो कभी दिल्ली परिबहन की लाल वाली ऐ.सी. बस की तरफ लपकते हैं और मेट्रो तो अपना अधिकार है उसमे क्या लपकना लेकिन कम्भख्त इस लपका लपकी से  भी हमें सूर्य देव के हंटरों की मार से कुछ राहत नहीं मिली  , मुहँ पे बंधे डाठे और हाथों के कोहनी तक दस्ताने राहत तो देते हैं लेकिन जैसे है दोपहरी अपने योवन पर होती है वहां इनकी भी सहनशीलता जवाव दे जाती है दिन की इस जंग के बाद जब अपने आशियानों की तरफ मुड़ते है दिल और घबराता है

अब आप कहेंगे ये कोनसी घवराने वाली बात हुई , दरअसल घबराहट इस बात की है हम उत्तर प्रदेश की आर्थिक राजधानी नोयडा में रहते है और यहाँ जो बिजली है वो रोज रात होते है छुप्पा छाई खेलती है एक बार आएगी हम जैसे उसके आने की ख़ुशी में कुछ करने उठेंगे ये फिर छुप जाएगी , अगर उस समय हमारी को खिन्नता और क्रोध नापने का कोई मीटर हो तो उसकी सुई भी टूट जाये , जैसे तैसे इस लड़ाई को लड़ते हुए पापी पेट को भरने का इंतजाम करते हुए , सरकार और बिजली बालों को गरिआयते  हुए सबसे ऊँची छत पर कुछ पांच छ: घंटे के नींद लेते हुए  अगर चाँद है तो उससे  या काली रात से बतिआयते हुए  सो जाते हैं हाँ इतना अच्छा हमारी राजधानी में मच्छर नहीं है शायद ये भी महामहिम लोकपाल के हंटर के डर से इधर उधर हो लिए हैं आपके मन में एक सवाल तो आया होगा की इतना दुखी हो तो इन्वर्टर ही ले लो , तो सुनिए एक तो हम आदमी है दूसरे अभी बेचलर हैं तो इन सुविधाओं का अभाव है इस देश में सारे कानून और लोकपाल हम निरीह जनता के लिए हैं कोई इन सरकारों इन बिजली वालों पर नहीं जो इनसे पूंछे की जनाव आजादी के ६७ सालो के बाद भी जनता बिजली, पानी, और रोटी के लिए लड़ रही है और आपके  कान पर जूं तक नहीं रेंगती .. हर साल घोषणा करते है की इतने मेगाबाट की बिजली प्लांट जनता को समर्पित लेकिन जनता हर साल बिजली का रोना रोती हैं

सो अंत में दुखी और क्रोधित मन से में महामहिम जगत लोकपाल श्री सूर्य देव से प्रार्थना करता हूँ की या तो आप वादलो से निगरानी हटाइये या फिर इन फरेबी सरकारों पर भी अपना हंटर बरसाइये , अन्यथा हम सब आम आदमी भूख हड़ताल कर देंगे और २१ जून को हम आपको नमस्कार भी नहीं करेंगे ..


..गर्मी से त्रस्त आम आदमी

...निशान्त यादव

Saturday, 13 June 2015

आवारा फिजायें...

रात कुछ बीते हुए लम्हे
पलकों के  साथ बैठे रहे है
ये लम्हे जब भी पलकों से रूबरू हुए
एक नमी पलकों की कोरों पर छोड़ते गए
ये नमी ख़ुशी और दर्द का संगम है
कुछ लम्हे अठाहस् दे गए कुछ उदासी भी
आँखे सिर्फ लम्हों को ताकती रहीं
बेबस सी कुछ कर न सकी
न इन्हें कैद कर सकी न जाने को कह सकी
दरअसल ये दोष फिजाओं का है
आज फिजाओं में ठंडक है
लम्हे भी इन फिजाओं के कैदी हैं
मन इन्हें कैद करने को लपकता है
मेरे वश में न तो मेरा मन है
ना ये आवारा फिजायें... 

.....निशान्त यादव

Wednesday, 10 June 2015

अच्छी सरकार / नवीन सागर


मैने कभी नवीन सागर का नाम नहीं सुना , वे क्या थे क्या नहीं ये सब मैने दखल प्रकाशन के फेसबुक वॉल पर उनकी चर्चा के बाद जाना , यहाँ उनकी एक कविता  पढ़ी जिसने मेरा घर जलाया /उसे इतना बड़ा घरदेना / कि बाहर निकलने को चले पर निकल न पाये ,  मुझे इन शब्दों में  गजब का आकर्षण लगा और फिर   गूगल पर खोजा तो उनकी और भी कवितायेँ मुझे मिली , इन कविताओं को पढ़ कर मुझे अफ़सोस भी हुआ और हैरत भी की आखिर ऐसा लेखक मेरे और लोगो के जेहन में क्यों नहीं है मैं नवीन सागर को कवि पाश , अदम गोंडवी के  समानांतर देखता हूँ , आप सब से उनकी एक कविता "अच्‍छी सरकार" शेयर कर रहा हूँ यदि कोई और अधिक कविता पढ़ना चाहे तो कविताकोश पर पढ़ सकता है 

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यह बहुत अच्‍छी सरकार है
इसके एक हाथ में सितार दूसरे में हथियार है
सितार बजाने और हथियार चलाने की
तजुर्बेकार है

इसका निशाना अचूक है
कानून की एडियों वाले जूते पहनकर
सड़क पर निशाना साधे खड़ी है
उसी सड़क से होकर मुझे
एक हत्‍या की गवाही के लिए जाना है

मुझसे पहले
दरवाजा खोलकर मेरा इरादा
बाहर निकला
तुरन्‍त गोली से मर कर गिरा

मैंने दरवाजे से झॉंक कर कहा
मुझे नहीं पता यह किस का इरादा रहा
इस तरह
मैं एक अच्‍छा नागरिक बना
फिर मैंने झूम-झूम कर सितार सुना.


......निशान्त यादव

सेल्फ गवर्नेस

ये बड़ी बिडंबना है जिन सरकारों को या उनके नुमाइंदों को  हम अपने जख्मो पर मरहम लगाने के लिए चुनते है वो मरहम तो नहीं जख्म में नमक डालने लगते हैं  इसका कारण है हमारा सरकार पर निर्भर होते जाना , सेल्फ गवर्नेस बड़ी चीज है इसकी  हमें पूरे देश में जरुरत है जब नागरिक जागरूक और आवाज उठाने वाला होगा तब सरकार , उसके  नुमाइंदे और जनप्रतिनिधि दोनों सही दिशा में चलेंगे और नागरिको की आवाज को सुनेंगे हमें अपने सामाजिक रिश्ते और उनकी डोर राजनीती के मोम से नहीं जोड़नी और न ही इसके चाकू से इसे काटना है ध्यान रखिये जितना जातीय , धार्मिक और सामाजिक बैमनस्य बढ़ेगा उसका फायदा देश के आम नागरिक को कतई नहीं होगा इसका पूरा फायदा इन्ही लोगो को होगा जिनके कारण ये देश गुलाम हुआ फिर बँटबारा हुआ और आज भी हम कहीं न कहीं अलग धड़ो बंटे पड़े है आप देश में हुए तमाम फसादों के इतिहास को देखिये हमें कहीं कुछ नहीं मिला है इस देश में आज भी ऐसे गावं है जहाँ अब तक बिजली नहीं है जहाँ बच्चे पढ़ने के किलोमीटरों पैदल चलकर जाते हैं आज भी अस्पताल नहीं है और अगर कहीं अस्पताल और स्कूल है तो उनमे चिकित्सा और पढाई का स्तर क्या है ये किसी से छुपा नहीं है आखिर ये सब कैसे सुधेरगा ! ये परिद्श्य कब बदलेगा ! ये बदलेगा जरूर बदलेगा ! जब हम इन हुक्मरानो से सवाल करेंगे , बिना किसी जात और धर्म में बंट कर एक साथ इनसे सवाल करेंगे की बताओ तुमने इतने सालों में हमें क्या दिया ?

Sunday, 7 June 2015

मैं हूँ बादल आवारा




तुम चाँद से हो बाबस्ता                      
मैं चांदनी का  हूँ दीवाना

तुम रोशन हो शम्मा की तरह
मैं शम्मा का हूँ परवाना

तुम आसमां हो सितारों से जड़ा
मैं हूँ बादल आवारा

तुम बारिश की ठंडी फुहार हो
मैं मदमस्त हवा का झोका हूँ

तुम तेज नदी की धारा सी
मैं उस नदी का साहिल हूँ

तुम झील हो मीठे पानी की
मैं सागर खारे पानी का

है साथ तुम्हारा है भी नहीं
जैसे दो  समतल रेखाओ सा

तुम पार लगाती नैया हो
मैं उस नैया का माझी हूँ

तुम चाँद से हो बाबस्ता
मैं चांदनी का  हूँ दीवाना .....

....निशान्त यादव

Saturday, 6 June 2015

मैगी के नाम खुली चिट्टी : A Open Letter To Maggi


डियर मैगी
अलविदा !
 ये अलविदा कहते हुए दुःख के भाव है जो मैगी जिंदगी का  हिस्सा बन चुकी हो उसे अलविदा कहना इतना आसान नहीं है बचपन टीवी पर मैगी का ऐड देख कर माँ से मैगी खाने की जिद किया करते थे और माँ हमें मैगी बदले नमकीन जवे खिला दिया करती थी लेकिन जव घर से दूर पढाई के लिए निकले तो वहां साथ में न माँ थी और जव माँ नहीं तो नमकीन जवे भी नहीं थे तब हमारी आधी रात की निशाचरों वाली भूख का एक इलाज था मैगी हाँ मैगी से एक शिकायत हमेशा रही ये कभी दो मिनटमें  नहीं पकी दस मिनट तो ले ही गई और फिर हम भी भारतीय ठहरे जव तक अपना देसी आलू मटर डाल के स्वाद न आये तब  तक सारे स्वाद अधूरे , बचपन के नमकीन जवों का स्वाद मैगी से ही लिया करते थे वक्त बीता पढाई करके  जव नौकरी की तलाश में दिल्ली अाये तब मुफलिसी भरी बेरोजगारी में मैगी ने ही सहारा दिया
फिर जव नौकरी मिली तब लेट नाइट ऑफिस से थक कर आने के बाद फिर बही मैगी ही सहारा !
डिअर मैगी तुमने हम जैसे  न जाने कितने थके , मांदे , बेरोजगारो के पेट भरे है  इतने सालो में कभी नहीं लगा की तुममे कोई धीमा जहर भी है शायद बेरोजगारी और भूख ने उसका एहसास होने ही नहीं दिया , मुझे अब भी यकीं तो नहीं होता की तुममे धीमा जहर हो सकता है और सच बताऊँ तो मुझे इन सरकरी रिपोर्टो पर भी यकीं नहीं आखिर जब इन्होने ही तुम्हे खाने लायक घोषित किया फिर अब ये तुममे जहर क्यों कहते है खेर तुम जाओ , अपने इस जहर को अलविदा कह दो और हमारी आधी रातों की भूख का ख्याल रखो , बैसे तुमसे ज्यादा जहर तो इस शहर के फिजाओं में हैं मैं  हर रोज हवा और पानी के सहारे न जाने कितना लेड और आर्सेनिक पी जाता हूँ मगर अफसोस की इन हवाओं और पानी को बैन करने वाला इस देश में कोई नहीं है जव जव यमुना के पुल से गुजरता हूँ चाहे वो ओखला हो या इंद्रप्रस्थ दोनों जगह कई नाले काले नाग की तरह यमुना को डस रहे होते हैं और वहां सब के सब अपनी धुन में भागे चले जाते हैं वो सरकार भी और उसके हुक्मरान भी जो तुममे जहर होने की बात करते हैं और हम सब उसे जहर के पानी की उगी सब्जी खाते है और उसी पानी को पीते है
खेर तुममे जहर था और तुम हमें धोखा देते रहे , अब जाओ और इस जहर को खुद से अलग करके आओ , और न अलग कर पाओ तो हमेशा के लिए अलविदा  ..

तुम्हारा फेन
निशान्त यादव



Thursday, 4 June 2015

" इश्क में माटी सोना" लप्रेक - फ़ेसबुक फ़िक्शन श्रृंखला : Girindranath Jha

जब कुछ समय पहले रवीश कुमार लिखित लप्रेक : "इश्क में शहर" होना आई । ये किताब बड़ी अच्छी लगी मैने इसे 1 घंटे में ही पढ़ लिया था । किताब पड़ने के बाद एक सवाल मेरे मन में आया कि क्या हम इश्क़ में शहर ही होते है ? क्या गावँ कभी नहीं होते ? क्या ऐसी इश्क की कहानियां गावँ में नहीं होती है इस सवाल में लेखक से कोई शिकायत नहीं थी क्यों की वे तो पहले इसके बारे स्थिती को साफ कर चुके थे । लेकिन मेरे अंदर के ग्रामीण ने खुद से और उस लेखक या कहे पत्रकार से जिससे ना जाने क्यूं अपनी बात कहने की उम्मीद लगी रहती है से सवाल कर ही डाला हालांकि उसका लेखक ने जवाव भी दिया । कल जब Girindranath Jhaजी द्वारा लिखित लप्रेक की तीसरी किताब के नाम की घोषणा हुई तब ये सवाल फिर से जग उठा । क्या कोई इश्क में गावँ हो जायेगा ? अभी खुद से इसका जवाव मुझे हाँ में ही मिल रहा है गिरीन्द्र जी से फेसबुक पर मित्रता पहली लप्रेक के बाद ही हुई लेकिन इतने समय में उनसे हुए बातचीत से में यही कहता हूँ वो बड़े भाबुक और भले व्यक्ति हैं जिनके रोम रोम में उनका गावँ बसता है और उन्हें अपने गावँ से इश्क है और यही इश्क शायद हमें उनकी इस इश्क किताब में देखने को मिलेगा । मैं बड़ी खुशनुमा बेचैनी से इस किताब का इंतजार कर रहा हूँ

....निशान्त  यादव 

Monday, 1 June 2015

कारगिल शहीद लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया : सरकार का न्याय दिलाने से इंकार



देश की सरकार अपने सैनिक के एक सर की जगह पाकिस्तान के चार सर लाने की हुंकार भरती है , देश के रक्षा मंत्री , गृहमंत्री सब के सब अपनी सभाओ में या मिडिया वार्ताओं में पाकिस्तान को सबक सिखाने के देशभक्ति से भरे बयान देते है लेकिन सच्चाई बिलकुल अलग है कारगिल में सबसे पहले पाकिस्तानी घुसपैठ की जानकरी देने वाले लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और उनकी टीम के साथ पाकिस्तानी सेनिको ने  क्रूरतम व्यबहार करते हुए उन्हें भयानक यातनाएं दी .. लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया के पिता पिछले सोलह सालो से इस मामले को अंतराष्ट्रीय न्यायालय में सुनवाई की लड़ाई लड़ रहे है लेकिन आज सरकार ने साफ कर कर दिया है वो लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और उनकी टीम को न्याय नहीं दिला पायेगी ,हो सकता है इस मामले में कोई तकनीकी बजह हो लेकिन सरकार को कोशिश तो करनी चाहिए ,सौरभ कालिया के पिता ने सुप्रीम कोर्ट में न्याय के लिए अर्जी लगाई थी, लेकिन इस पर कुछ नहीं किया गया.

चुनावी जुमलों , तैश  और जोश में दिए बयानों और सचाई में बड़ा फ़र्क़ होता है हालांकि इस मामले में अब तक की कोई सरकार कुछ नहीं कर पायी है चाहे तत्कालीन वाजपेयी सरकार हो या कांग्रेस या फिर आज की भारत के इतिहास में सबसे बेहतरीन सरकार(स्वघोषित) हो , आप देश के बहादुर नेताओं जो पचास -पचास कमांडो के सुरक्षा घेरे में रहते है आप सब मिलकर एक सैनिक  और उसके पिता को न्याय नहीं दिला सकते तो आप से हम और क्या उम्मीद करें आप बहादुर होंगे या आपकी छातियाँ कई इंचो चौड़ी होंगी  , लेकिन ये सब बेमतलब है जब तक  एक सैनिक को न्याय न मिले