जब कुछ समय पहले रवीश कुमार लिखित लप्रेक : "इश्क में शहर" होना आई । ये किताब बड़ी अच्छी लगी मैने इसे 1 घंटे में ही पढ़ लिया था । किताब पड़ने के बाद एक सवाल मेरे मन में आया कि क्या हम इश्क़ में शहर ही होते है ? क्या गावँ कभी नहीं होते ? क्या ऐसी इश्क की कहानियां गावँ में नहीं होती है इस सवाल में लेखक से कोई शिकायत नहीं थी क्यों की वे तो पहले इसके बारे स्थिती को साफ कर चुके थे । लेकिन मेरे अंदर के ग्रामीण ने खुद से और उस लेखक या कहे पत्रकार से जिससे ना जाने क्यूं अपनी बात कहने की उम्मीद लगी रहती है से सवाल कर ही डाला हालांकि उसका लेखक ने जवाव भी दिया । कल जब Girindranath Jhaजी द्वारा लिखित लप्रेक की तीसरी किताब के नाम की घोषणा हुई तब ये सवाल फिर से जग उठा । क्या कोई इश्क में गावँ हो जायेगा ? अभी खुद से इसका जवाव मुझे हाँ में ही मिल रहा है गिरीन्द्र जी से फेसबुक पर मित्रता पहली लप्रेक के बाद ही हुई लेकिन इतने समय में उनसे हुए बातचीत से में यही कहता हूँ वो बड़े भाबुक और भले व्यक्ति हैं जिनके रोम रोम में उनका गावँ बसता है और उन्हें अपने गावँ से इश्क है और यही इश्क शायद हमें उनकी इस इश्क किताब में देखने को मिलेगा । मैं बड़ी खुशनुमा बेचैनी से इस किताब का इंतजार कर रहा हूँ
....निशान्त यादव
....निशान्त यादव
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