Thursday, 30 April 2015

इंसानी जीवन का सच

हम  इंसान अपने बजूद को जिन्दा रखने के लिए जिंदगी भर लड़ते है एक दूसरे से लड़ते , परस्थितिओं  से लड़ते है और कभी- कभी पीढ़ी दर्द पीढ़ी लड़ते है अपने होने के बजूद हम इंसान जमा कर जाते है बिलकुल मुन्नवर राणा साहव के शेर की तरह ...
मुमकिन है मेरे बाद की नस्लें मुझे  ढूंढ़ें
बुनियाद में इस नाम का पत्थर भी लगा दो.

लेकिन ये प्रकृति जिसके गोद में हम पल रहे है ये भी चुपचाप हंसती होगी  और फिर एक दिन  एक झटके में हमारे बजूद को मिटा जाती है और हम फिर से जुट जाते अपने बजूद को बनाने में ! यही इंसानी जीवन होने का संघर्ष है हम मिटते है बनते और फिर बनते है  !!







रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है - गुलज़ार






रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है
रात ख़ामोश है रोती नहीं हँसती भी नहीं
कांच का नीला सा गुम्बद है, उड़ा जाता है
ख़ाली-ख़ाली कोई बजरा सा बहा जाता है
चाँद की किरणों में वो रोज़ सा रेशम भी नहीं
चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती है
और सन्नाटों की इक धूल सी उड़ी जाती है
काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी
हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता है

----गुलज़ार

Monday, 27 April 2015

बाबरे मन लौट आ ...





बाबरे मन लौट आ आवारगी के दिन गए ।                                              
देख लंबा रास्ता , अब मस्तियों के दिन गए ।। 

राह पथरीली मिले या फ़ूल की चादर मिले ।
चल समय पर छोड़ दे , पर बाबरे मन लौट आ ।।

चुन लिया है फूल को काँटों के संग इस राह में ।
कौन जाने छोड़ दे  ...  एक  साथी वास्ता ।।

राह फूलों की चुने , सब काँटों से किसका वास्ता ।
नींद सुख की सब जियें , दुःख से है किसका वास्ता ।।

आ अंधेरो से लड़े , अब रौशनी की लौ लिए ।
चल जला दें  राह में रौशन किये लाखो दीये ।।

छोड़ दे अब साथ उसका जिसने अँधेरे दिए ।
बाबरे मन लौट आ आवारगी के दिन गए ।।

रौशनी की एक लौ है काफी ,  मन के अँधेरे तेरे लिए ।
देख फिर भी लाया हूँ मैं , आशा के लाखो दीये ।।

फिर से न विखरेगा तू , आज ये वादा तो कर ।
देख ले आया हूँ मैं, निशाँ मंजिलो के ढूंढ कर ।।

लौट आ अब देख ले , जिंदगी दरवाजे खड़ी ।
बाबरे मन लौट आ , आवारगी के दिन गए ।।

........निशान्त यादव

Sunday, 26 April 2015

#NepalEarthquake


जब जब हमें इस पृथ्वी के शक्तिशाली जीव होने का दम्भ होता है ये प्रकृति अपने जोर दार चांटे से इस दम्भ को तोड़ देती है , हम बड़े गुमान से कहते है की हम आसमान को छु लेंगे , जमीं के अंदर घुस के ईमारत बनाएंगे , लेकिन प्रकृति आती है  और दो चांटे लगाती है हमारे होश कुछ देर के लिए ठिकाने आते है और हम फिर बही के बही , लेकिन क्या करें हम भी मजवूर है हमारी इक्षाओं का क्या वो तो हर दिन बढ़ती चली जाती है
शायद मानव होने का यही दंड है !!
अब यदि ईश्वर सुनते हो तो जो इस प्राकृतिक आपदा के शिकार  हुए लोगो के परिवारों को इस दुःख से लड़ने की शक्ति दे , हम दोषी है प्रकृति तुम्हारे !! 

Friday, 24 April 2015

तन उजियारे, काले मन

माया और काया पर निर्भर है व्यक्ति यहाँ ।
तन का रंग सब देख रहे मन के रंग से अनिभिज्ञ यहाँ ।।
माया काली ,उजियारे तन की माँग यहाँ ।
काले तन ,उजियारे मन को ले जाऊँ कहाँ ।।
हे ! कृष्ण बताओ क्या  तुमने भी झेला दंश यहाँ ।
देखो रंग, प्रेम पर भारी हे ! कृष्ण यहाँ ।।
रंगो के इस भेद भाव में जीती दुनिया सारी ।
माया के काले  पाश बंधी दुनिया सारी ।।
हे ! शनि काला रंग अपना ले जाओ ।
या फिर माया पाश  से मुक्ति दे जाओ ।।
मन के काले जग में उजियारा मिले कहाँ ।
हे ! सूर्य कृपा कर उजियारे मन कर जाओ ।।
हे ! चंद्र रात्रि से लड़ जाओ ।
सब काले मन उजियारे से भर जाओ ।।


 ---निशान्त यादव 

Tuesday, 21 April 2015

एक साल का सफर ...

एक अप्रैल 2015 को मैंने अपने ब्लॉग "मेरे एहसासों का पन्ना" को लिखने की शुरुआत की थी , और पहली कविता लिखी थी  "मेरा गाँव अब शहर हो गया है" | ये कविता लिखने में और  इसके शब्दों को सहेजने में मुझे महीना भर लगा था कविता और कहानी की दुनिया में कदम तो बहुत पहले रख दिया था लेकिन इस सफर को मूर्त रूप देने का महूर्त एक अप्रैल को हुआ , धीरे धीरे कविता , कहानी , और बड़े शायरों , कविओं , कहानीकारों की रचनाएँ पढ़ कर हौसला बढ़ता गया , शब्दों के के बादल घुमड़ते गए और बरसते गए . शब्दों के बादल कभी भी घुमड़ते जाते है इनका कोई मौसम नहीं होता और कभी कभी ये रूठ भी जाते है लेकिन फिर से कोई हवा को झोका आता है और इन्हे मना कर ले आता है मेरी कविताओं में साहित्य की कसोटी के हिसाब है तमाम कमियां होती है कहीं लय नहीं होती तो कहीं छंद  और भी कमियाँ होती है इसके लिए साहित्य के पुरोधाओं से माफ़ी भी चाहता हूँ लेकिन मैं ह्रदय में उठने वाली पीड़ा , हर्ष , क्रोध और कभी हास्य को बस लिख देता हूँ उम्मीद करता हूँ त्रुटियाँ भी ठीक करना सीख ही लूंगा ,
आज अपने ब्लॉग  के 12,365 व्यू देख रहा था  इन्हे देख कर हौसला और बढ़ जाता है  इस हौसले को मैं शब्दों के रूठे हुए बादलो को भी दिखा देता हूँ ये मेरे और करीव आने लगते है धन्यवाद उन सब पाठको का जिन्हे मैं
जानता हूँ या नहीं , ये हौसला यूँ ही देते रहिये ....
आपके दिए हौसले से जल्द ही एक कहानी संग्रह किताब के रूप में लिख रहा हूँ जब पूरा होगा आपके सामने पेश करूँगा ,  आप सब हौसला देते रहिये इनमे बड़ी शक्ति  होती है

आपका
निशान्त यादव 

हमेशा देर कर देता हूँ मैं / मुनीर नियाज़ी

हमेशा देर कर देता हूँ मैं

ज़रूरी बात कहनी हो
कोई वादा निभाना हो
उसे आवाज़ देनी हो
उसे वापस बुलाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं

मदद करनी हो उसकी
यार का धाढ़स बंधाना हो
बहुत पुराने  रास्तों पर
किसी से मिलने जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं

बदलते मौसमों की सैर में
दिल को लगाना हो
किसी को याद रखना हो
किसी को भूल जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं

किसी को मौत से पहले
किसी ग़म से बचाना हो
हक़ीक़त और थी कुछ
उस को जा के ये बताना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं

--मुनीर नियाज़ी

Wednesday, 15 April 2015

उन से नैन मिलाकर देखो / मुनीर नियाज़ी

उन से नैन मिलाकर देखो                                  
ये धोखा भी खा कर देखो

दूरी में क्या भेद छिपा है
इसकी खोज लगाकर देखो

किसी अकेली शाम की चुप में
गीत पुराने गाकर देखो

आज की रात बहुत काली है
सोच के दीप जला कर देखो

जाग-जाग कर उम्र कटी है
नींद के द्वार  हिलाकर देखो

---मुनीर नियाज़ी

Tuesday, 14 April 2015

वो बचपन के संबिधान वाले बाबा / भारत रत्न डा. भीम राव अम्बेडकर



बचपन में जब छोटा था तब हम अक्सर त्योहारो पर , गर्मिओं की छुट्टीओं में अपने गावं पिता जी के साथ जाया करते थे , गावं के  पहले ही छोटे से कस्वे नुमा गावं में एक मूर्ति नाक की सीध में हाथ और दूसरे हाथ में किताब लिए खड़ी रहती है , है इसलिए कहा (अभी कुछ अंश अभी बाकि है) . बचपन बड़ा जिज्ञासु होता है और मै भुल्कड्ड और जिज्ञासु दोनों था | मैं हर वार पिता जी यही सवाल करता था, पापा  ये कौन है ?
और पिता जी हरवार कहा करते थे ये बाबा अम्बेडकर है , और ये ऊँगली क्यों सीधी किये रहते है ? बेटा ये बाबा कहते है सीधे चलो हमेशा सामने देख कर , और ये क्या किताब क्यों लिए रहते है बेटा ये हमारा संबिधान है और फिर से मेरा सवाल संबिधान क्या होता है ? जब बड़े होजाओ तब पढ़ लेना , क्या ये सब के बाबा है ?  आपके भी ? पिता जी कहते हाँ !  ..और इतने हमारा गावं आ जाया करता था फिर जब कभी साथ में  माँ होती थी तब मै पहले से माँ से कहता था मम्मी अब बाबा की मूर्ति आने वाली है और जब आती तब कहता देखो बो रहे संबिधान वाले  बाबा और माँ- पिता जी मेरी मासूमियत पर हँस जाया करते थे वक्त बीता बचपन से जवानी मे कदम रखा और हमने संबिधान वाले बाबा को जातिओं में बंटते देखा , देश के कथित नेताओं ने उन्हें अपने अपने हिसाब से इस्तेमाल किया , जनरल नॉलेज के सवालो मे हमने संबिधान के हर प्रश्न का उत्तर अम्बेडकर ही दिया .. अपनी बचपन की दृष्टि से मेने बाबा अम्बेडकर की उसी छवि की जिन्दा रखा , हम आज उनकी जयंती मना रहें है लेकिन हम बाबा को हर दिन जीते है आप नेता उन्हें कही भी बाँट दो लेकिन बो हमारे जेहन मे संबिधान बाले बाबा ही रहेंगे , और कोशिश करेंगे की अपने आने वाली पीढ़ी को भी ये बात देकर जाएँ नाकि ये की वो किस जाति के थे , धन्य हो बाबा साहेव अम्बेडकर जो हमे अधिकार दिए एक मजवूत लोकतंत्र रहने के , बचपन की यादों और जवानी के सवालो से बनी कुछ पक्तिया ..

बचपन के संबिधान बाले बाबा !
आप यूँ ही जिन्दा हो बैसे के बैसे ही !
कुफ्र ये की जवानी आपको बंटते देखा !
किन्तु आप जिन्दा है जेहन मे बैसे के बैसे ही !
बही संबिधान बाले बाबा !
आपकी ऊँगली का इशारा !
बखूबी समझा है हमने !
देखो कहाँ ले आये हम !
आपकी उस किताब को !

आपकी पीढ़ी का नव अंकुर ..
..निशान्त यादव

तब रोक न पाया मैं आँसू / हरिवंशराय बच्चन

तब रोक न पाया मैं आँसू!                                                    

जिसके पीछे पागल होकर
मैं दौड़ा अपने जीवन-भर,
जब मृगजल में परि‍वर्तित हो मुझपर मेरा अरमान हँसा!
तब रोक न पाया मैं आँसू!

जिसमें अपने प्राणों को भर
कर देना चाहा अजर-अमर,
जब विस्‍मृति के पीछे छिपकर मुझ पर वह मेरा गान हँसा!
तब रोक न पाया मैं आँसू!

मेरे पूजन-आराधन को,
मेरे संपूर्ण समर्पन को,
जब मेरी कमजोरी कहकर मेरा पूजित पाषाण हँसा!
तब रोक न पाया मैं आँसू!

---हरिवंशराय बच्चन 

चराग-ओ-आफताब गुम, बड़ी हसीं रात थी




चराग-ओ-आफताब गुम, बड़ी हसीं रात थी                                  
शबाब की नकाब गुम, बड़ी हसीं रात थी
मुझे पिला रहे थे वो की खुद ही शम्मा बुझ गयी
गिलास गुम शराब गुम, बड़ी हसीं रात थी
लिखा हुआ था जिस किताब में, की इश्क तो हराम है
हुई वही किताब गुम, बड़ी हसीं रात थी
लबो से लब जो मिल गए, लबो से लब जो सिल गए
सवाल गूम जवाब गुम, बड़ी हसीं रात थी

Sunday, 12 April 2015

Love in Inbox – #इनबॉक्स_लव – 6

                                                      चित्र साभार ... www.sujitkumar.in


..सुनो गूगल हैंग आउट इंस्टॉल कर लो सही है
क्यों फेसबुक मेसेंजर है तो सही ?
..अरे नहीं अब ये डिस्टर्ब करता है ये हर टाइम मुझे ऑनलाइन दिखाता है कल बुआ का फ़ोन आया था बड़ी फेस बुक चलाती हो
क्या तुम्हारी बुआ भी फेसबुक चलाती है अरे नहीं कल रात 12 बजे बुआ का लड़का ऑनलाइन था बुआ भी उधर ही थीं ?
..अच्छा तो हैंग आउट से क्या होगा
अरे यार इतना भी नहीं जानते इधर कोई नहीं होता
..हा ये तो सही कहा तुमने ठीक है करता हूँ
क्या यार प्यार में टाँग अड़ाने बाले इधर भी आ ही गए सोचा था इंटरनेट के सहारे मोह्हबत में कोई रुकबट नहीं होगी पर इधर भी...
..अरे छोड़ो यार क्यों सीरियस होते हो
कह तो दिया डाल लूंगा हैंग आउट
..आजकल तुम बड़े चिढ़ चिड़े हो गए हो पहले तो नहीं थे ऐसे
अरे यार प्लीज ये टिपिकल हिंदी फ़िल्म डाइलोग मत मारो आई ऍम गोइंग टू स्लीप नाउ
ओके बाय गुड नाईट लव यू
..बस लव यू
हाँ  आज इतना ही
बाय ....
अगली दुपहर लंच टाइम
* * * * * * * * * * * * * * *
हाय  !
नाउ आई ऍम ओन हैंग आउट
या गुड सो नाउ वी कैन चेट विथआउट एनी  डिस्टर्बेंस
ह्म्म्म्म
..सुनो 7 बजे राजीब चौक मिलना
ओके कहाँ मिलोगे
..बहीं जहाँ रोज मिलते है स्टैर्स बाली रेलिंग के पास
ओके ठीक है
..नाउ टाइम टू गो फॉर मीटिंग
किसकी मीटिंग है ?
..एक डील है फाइनल हो गई तो लाइफ बन जायेगी
 यार मुझे कभी कभी तुम्हारे ये डील से डर लगता है
 कहीं इन डील के चक्कर में मुझे भुला न देना
...यार प्लीज नॉट अगैन
ओके बाय चलता हूँ टाइम से आ जाना

शाम 7 बजे ..
* * * * * * * * * * * * * * *
..अरे यार कब से खड़ा हूँ यहाँ तुम हो की आती ही नहीं और ये तुम्हारे फ़ोन को क्या हुआ लगता क्यों नहीं है 
अरे यार सिंगनल नहीं थे शायद आती हूँ  बस दो स्टेशन पीछे हूँ 
..ओके ठीक है जल्दी आओ में यहाँ कब से खड़ा हूँ 
कहाँ खड़े हो ?
..वहीँ जहाँ रोज खड़ा होता है असेक्लेटर के पास जो ग्रिल है उसी से टिका खड़ा हूँ कम से कम १० लोगो रास्ता बता चुका , ये मेट्रो वाले कोई गाइड क्यों नहीं खड़ा करते यहाँ अजनवियों के लिए ..
पीछे से  धप्प  ... 
..एक झप्पी दो पहले 
ओके बाबा  अब चले 
हाँ  चलो !
बो तुम फ़ोन पर क्या कह रहे थे अजनवी ..
..हाँ  वो तमाम अजनवी मुझसे रास्ता पूछ रहे थे 
हाँ हमारी तरह !
मतलब ?
मतलब ये कि हम  भी कभी  इस शहर में अजनवी थे इस शहर और एक दूसरे से ...
चलो एक बार फिर से अजनवी बन जाये हम दोनों
..नहीं कभी नहीं ये गाना और शब्द अजनवी इसे हम दोनों के बीच से दूर फेक दो ...

स्टेशन पर गाड़ी रुकी ...दोनों एक दूसरे को बाय बोलते हुए अपनी राहों में कुछ पल के लिए अजनवी होकर घर की तरफ चले गए , अजनवी बस कुछ पल के लिए हमेशा के लिए  नहीं ....



शेष अगले अंक में ...........

Saturday, 11 April 2015

रोने में इक ख़तरा है तालाब नदी हो जाते हैं / मुनव्वर राना



रोने में इक ख़तरा है, तालाब नदी हो जाते हैं
हंसना भी आसान नहीं है, लब ज़ख़्मी हो जाते हैं

इस्टेसन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं
पत्ते देहाती रहते हैं, फल शहरी हो जाते हैं 

बोझ उठाना शौक कहाँ है, मजबूरी का सौदा है 
रहते-रहते इस्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं

सबसे हंसकर मिलिये-जुलिये, लेकिन इतना ध्यान रहे
सबसे हंसकर मिलने वाले, रुसवा भी हो जाते हैं

अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़्म--तर की चाहत में
कैसे-कैसे सच्चे शाइर दरबारी हो जाते हैं

---मुनव्वर राना

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Friday, 10 April 2015

मेरे दर्द का हिसाब ले जाओ



मेरी माथे की शिकन से मेरे दर्द का हिसाब ले जाओ !

हो सके तो थोड़ी ख़ुशी उधार दे जाओ !
तुम्हारे दिए हुए आंसू अब चुभने लगे है !!
हो सके तो इन्हें मेरी आँखों से उधार ले जाओ !!!

खुशनुमा  लम्हे जो गुजरे तुम्हारे साथ !
दुःस्वप्न से पीछा करते है हर एक रात !!
कुछ वक्त  ही सही मेरी आँखों इन्हें चुरा ले जाओ !!!

तुम्हारे दिए उपहार मेरा उपहास उड़ाते है !
हो सके इन्हे दरिया में बहा आओ !!
कुछ वक्त ही सही मगर मुझे इनसे दूर कर जाओ !!

मेरे अंदर के खालीपन से अपने जाने का बजूद ले जाओ !
हो सके तो मुझे खुद को खुद से भर जाओ !!
कुछ वक्त ही सही तुम फिर से आजाओ !!

...........निशान्त  यादव








Thursday, 2 April 2015

बदले गये हो तुम !


क्या कभी आईने में अपने आप को देखा है खुद को , चेहरे को नहीं !
क्या आइना, तुम्हारे अंतर्मन को दिखा रहा है नहीं शायद ! आइना कृत्रिमता को दिखाता है
देखो तुम्हारे चेहरे पर भाव है  और ये भाव ही तुम्हारे अंतर्मन के सूचक है तुम्हारा चेहरा भाव शुन्य नहीं है तुम्हारे अंदर बदलाव है ये मै नहीं ,ये आईना कहता है  इसने तुम्हारे चेहरे को पढ़ लिया है और तुम हो की मुद्दतो से खुद को खुद से मिलने ही नहीं देते , तुम्हारे प्रतिमान वदल गये है  शायद  इसी लिए तुम वदल गये हो या फिर इस भागती घुड़दोड़ में तुमने खुद को शामिल कर अपने आप को पीछे  धकेल दिया है या फिर समाज की बेड़ियों और परम्पराओं ने तुम्हे मजवूर किया है लेकिन जो भी हो  तुम वदल गए हो , तुमने जाते हुए कभी न भूलने का वादा किया था लेकिन मैं आज तक  तुम्हारे वादे पर बैठा हूँ हर रोज अपने फ़ोन के इनबॉक्स को टटोलता रहता हूँ लेकिन हर बार मायूसी ही मिलती वहां !
मैं जानता हूँ जिंदगी दो नावों पर नहीं चलती है लेकिन जिस नाव के खेवएं कभी तुम खुद रहे हो और फिर उस नाव को बीच मजधार में छोड़कर दूसरी नाव पर चले जाना !
फिर लौट कर भी न देखना की उस नाव में सवार का क्या हुआ होगा !
मै गलत था शायद तुम वो  नहीं जिसे मैं जानता हूँ या फिर जानता था 
क्या तुम्हे वो कैडबरी के लड्डू याद है जिसका तुम इंतजार किया करती थी कि कब मै लाऊँ और हम दोनों एक -एक बाँट कर खाए , बताओ न तुम मेरा इंतजार करती थी या फिर उस लड्डू का , मुझे पता है इस सवाल पर तुम्हारे चेहरे पर मुस्कराहट जरुरु तैरी होगी , आईने में देखो तो जरा.. ये बता देगा कि ये तुम्हारी मुस्कुराहट झूटी है यार फिर सच में तुम्हे उस लम्हे कि याद आगई है देखो आईना भी सोच में पड़ गया है इसका मौन मुझे सब कुछ बता रहा है
मैं भी कितना पागल था समझ ही नहीं पाया ,
काश ये आईना मेरे पास उस वक्त भी होता जिमसें मै तुम्हारा और अपना सच देख पाता...

कुछ सवाल अब भी हैं मेरे जेहन में !
कभी आओ तो ये बोझ उतरे ! ....

निशान्त यादव