Saturday, 23 May 2015

निर्मोही समय

गुजरे हुए कल की हसीं यादें जव जव लौट कर आती है एक हूक सी उठती है । ह्रदय फिर से उन लम्हों को जीने की बजह ढूँढने लगता और ये मन ,ये तो पलक झपकते ही उस दौर में पहुँच जाता है,लेकिन ये जो समय है ये बड़ा निर्मोही है दोधारी तलवार की तरह इसके साथ चले या फिर ना चले ये दोनों ही परस्थितियों में घायल ही करता है और हम कुछ नहीं कर पाते जीवन बढ़ते रहने और लगातार चलते रहने का सफ़र है  जहाँ रुके सफ़र खत्म और जहाँ पीछे मुड कर देखा वहां ये रेस हारने का खतरा भी


सच में हम सब हार, जीत , पैसा , रसूख इन सव के हाथो नागपाश से जकड़े हुए जो हमारे मन और ह्रदय का दम घोटता रहता है फर्क इतना है कोई इस घुटन को महसूस कर लेता है और कोई इसे अंजान बनकर झिड़क देता है इस लिए चलते रहिये दौड़ते रहिये और फिर जहाँ विक्ट्री पॉइंट होगा वहां ये निर्मोही समय अपनी दोधारी तलवार लिए हँस रहा होगा । और हसंते हुए हमें अपना शिकार बना लेगा , हम सब एक बेहतर कल की तलाश  में अपने गावं, अपने देश , अपने घर से पलायन कर जाते है कोई अपना बेहतर कल बना पाता और कोई उसकी तलाश में भटकते भटकते दम तोड़ देता है



---निशान्त यादव

कुछ यूँ ही ...

वो अब तक गुमशुदा है 
मुझे यकीन तो नहीं 
वो अब शायद दामन छुड़ाना चाहता है 
जिस डोर से बंधे थे हम दोनों 
वो अब शायद उसे समेटना चाहता है 
मेरी मुसीवत ये है ये डोर सिर्फ 
मुझसे ही बंधना चाहती है 


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ये रात क़यामत की लगती है 
कटती है तो कट जाने दे 
कल फिर आएगी सुबह नयी 
तू थोडा इंतजार तो कर


--------निशान्त यादव   

Friday, 22 May 2015

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद - रामधारी सिंह "दिनकर"







रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,                       
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का;
आज उठता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।"




-----रामधारी सिंह "दिनकर"

Tuesday, 19 May 2015

चल राह के पत्थर हटायें



आ चल राह के पत्थर हटायें 
जो ना हटे तो वहीँ काट बिछाएं 
धैर्य का हथौड़ा और लगन की छेनी लिए
चल इन पत्थरों को आकार में लाये 
पाँव नंगे तो क्या इनमे अंगद सा बल लायें 
राह रोके जो खड़ा चल उसे कदमो में गिराएं 
मन जो तेरा हारा है टकरा के पाषाणों से 
चल उठ चुनौती  का भाला लिए  
इन पाषाणों से फिर टकराएं 
आ चल राह के पत्थर हटायें 

-- निशान्त यादव

Friday, 15 May 2015

अमर प्रेम गीत !


इस सफ़र के साझी तुम भी हो 
यकीं ना आये तो राहगीर लम्हों से पूंछो
तुमने जिंदगी के खाली सफर को भर दिया 
मेरी साँसों का आधा हिस्सा तुम ही हो 
कई गीत जो तन्हाई को कहते थे
उन्हें मेरे इस सफर से कुढ़न सी है
ये शब्द ! इन्हें कोई फर्क़ नहीं 
ये पानी की तरह बिना किसी रंग के 
हर रंग और हर आकर में ढल जाने को तत्पर 
चलो आओ बैठे कोई प्रेम गीत बनाये 
जिसे मैं लिखू और तुम गाओ 
इस जिंदगी का अमर प्रेम गीत !
जो मेरे और तुम्हारे सफ़र की  दास्ताँ कहे 

----- निशान्त यादव 

Wednesday, 13 May 2015

साहिल पे खड़े हो तुम्हे क्या गम, चले जाना

साहिल पे खड़े हो तुम्हे क्या गम, चले जाना
मैं डूब रहा हूँ ,अभी डूबा तो नहीं हूँ
हर ज़ुल्म तेरा याद है ,भुला तो नहीं हूँ
ए वादा फरामोश ,मैं तुझ सा तो नहीं हूँ

चुप-चाप सही , मस्लेहतन, वख्त के हाथो
मजबूर सही , वख्त से हारा तो नहीं हूँ
ए वादा फरामोश ,मैं तुझ सा तो नहीं हूँ

मुस्तर क्यू मुझे , देखता रहता है, ज़माना
दीवाना सही ,उनका तमाशा तो नहीं हूँ
ए वादा फरामोश ,मैं तुझ सा तो नहीं हूँ

हर ज़ुल्म तेरा याद है ,भुला तो नहीं हूँ
ए वादा फरामोश ,मैं तुझ सा तो नहीं हूँ


शब्द : आफताब  मुज़्तर
गायक : सज्जाद अली

Monday, 11 May 2015

निशांत यादव- 'अराफ़ात को बीबीसी से जाना'

बीबीसी की 75 साल पूरे होने पर बीबीसी ने उनसे जुडी कुछ हसीन यादों को भेजने को कहा हमारी भी बीबीसी लन्दन और पिता जी के साथ की यादें थी सो हमने भी भेज दी एक चिट्टी यादो की , और उन्हें पसंद भी आगई , आप सब पढ़िए .. 

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बीबीसी लंदन लगा और सुन, धीरे धीरे मिला.'
‘नहीं मिल रहा है पापा.’
'अरे मूर्ख, रेडियो का बैंड तो बदल.'
और मैं बस अंदाज़े से रेडियो की चूं चूं के बीच में बीबीसी लंदन लगा ही लेता था.
पिताजी रोज 7:20 का समाचार सुनकर फटाक से बोलते थे, जल्दी कर बीबीसी लंदन लगा. उस समय विदेश की बेहतर खबर सुनने का एक मात्र माध्यम बीबीसी लंदन ही था.
जैसे ही बीबीसी लंदन लगता था, पिता जी को खबर बोलने वाले की आवाज़ से पता लग जाता था. वो थोड़ा चिल्लाने के स्वर में कहते- 'रुक यही है.' मैं रेडियो की ट्यूनिंग बटन जस का तस छोड़ देता.
फिर धीरे रेडियो की साइड बदल, आवाज़ और साफ़ होती जाती. उस समय यासिर अराफ़ात और इसराइल की खबरें आया करती थीं. मैने यासिर अराफ़ात को बीबीसी लंदन की खबरों से ही जाना .
हिंदुस्तान की भी खबरें आती थीं लेकिन कुछ चुनिंदा ही. मज़े की बात ये है, मैंने कभी बीबीसी हिंदी लंदन की रेडियो फ्रीक्वेंसी नहीं देखी. बस बचपन में अंदाज़े से मिलाया करता था.
आज जब ये लिखने बैठा हूँ, तो गूगल पर देखा बीबीसी लंदन की फ्रीक्वेंसी 94.9 है.
बीबीसी लंदन को लेकर बचपन की तमाम यादें है जो भुलाये नहीं भूलती. मगर अफ़सोस ये, अब न तो पिता जी बीबीसी लंदन सुनते है और न मैं बीबीसी लंदन ट्यून करता हूँ .

Tuesday, 5 May 2015

अक्सर देर कर देता हूँ मैं

मैं अक्सर देर से पहुँचता हूँ ।
उसके बुलाने पर या खुद ही जाने पर ।।
मै अक्सर देर से कहता हूँ ।
उससे कुछ कहना हो या फिर खुद से ।।
मैं अक्सर देर से समझ पाता हूँ ।
समझना उसको हो या खुद को ।।
मैं बहुत देर कर देता हूँ ।
पहले हाँ कहने  में फिर ना कहने में ।।
मैं अक्सर देर से पढता हूँ ।
किसी का चेहरा हो या जज्वात अपने ।।
मै अक्सर देर से जलाता हूँ चिराग ।
अँधेरा रात के होने का हो या मन का ।।
मै अक्सर देर संभल पाता हूँ ।
हाथ तुम्हारा हो या साथ खुद का ।।

...निशान्त यादव

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों / गोपालदास "नीरज"

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है

सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।

लाखों बार गगरियाँ फूटीं,
शिकन न आई पनघट पर,
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल-पहल वो ही है तट पर,
तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों!
लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी न लेकिन गन्ध फूल की,
तूफानों तक ने छेड़ा पर,
खिड़की बन्द न हुई धूल की,
नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों!
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से दर्पन नहीं मरा करता है !

---श्री  गोपालदास "नीरज"

Monday, 4 May 2015

झरने का पानी /महात्मा बुद्द


आज बुद्द पूर्णिमा है जो सरकारी महकमों में है आज वो छुट्टी के मौज पर है और हम प्राइवेट वाले खुद को काम में धुन रहे है बिडम्वना ये है की छुट्टी में मौज पर जाना हो या काम में धूनी रमाना हो दोनों ही महात्मा बुद्द के दर्शन के विपरीत है छुट्टी के मौज में आराम तलवी है और काम में घुसे रहने में और अधिक पाने की चाह है जब थोड़ी सी गर्दन उठाने का मौका मिला तो देखा सोशल मीडिया महात्मा बुद्द पूर्णिमा की बधाई से भरा पड़ा है सब एक दूसरे को बुद्द पूर्णिमा की बधाई देने में जुटे है न तो बधाई देने और न ही बधाई लेने वाला कभी बुद्ध को जी पाया है तो फिर इन बधाईओं का क्या मतलब ?  मैं आज इसी सवाल में उलझा हुआ हूँ बुद्ध को पढ़ना और बुद्ध को जीना या फिर बुद्ध पूर्णिमा की बधाई देना ये तीनो एक दूसरे से  भिन्न है मैं खुद की बात करू तो  बुद्ध को सिर्फ कोर्स की किताबो में ही पढ़ पाया हूँ आज हर जगह महात्मा बुद्ध की जयंती पर बधाईओं को देखकर फिर कुछ पड़ने की तलाश में ये कहानी मुझे मिल गई , आप सब भी पढ़िए और कोशिश कीजिये जीवन में कहीं न कहीं तो महात्मा बुद्ध को या उनके संदेशो पर चलने की ...

झरने का पानी :--

महात्मा बुद्ध एक बार अपने शिष्य आनंद के साथ कहीं जा रहे थे। वन में काफी चलने के बाद दोपहर में एक वृक्ष तले विश्राम को रुके और उन्हें प्यास लगी।

आनंद पास स्थित पहाड़ी झरने पर पानी लेने गया, लेकिन झरने से अभी-अभी कुछ पशु दौड़कर निकले थे जिससे उसका पानी गंदा हो गया था। पशुओं की भाग-दौड़ से झरने के पानी में कीचड़ ही कीचड़ और सड़े पत्ते बाहर उभरकर आ गए थे। गंदा पानी देख आनंद पानी बिना लिए लौट आया।

उसने बुद्ध से कहा कि झरने का पानी निर्मल नहीं है, मैं पीछे लौटकर नदी से पानी ले आता हूं। लेकिन नदी बहुत दूर थी तो बुद्ध ने उसे झरने का पानी ही लाने को वापस लौटा दिया।

आनंद थोड़ी देर में फिर खाली लौट आया। पानी अब भी गंदा था पर बुद्ध ने उसे इस बार भी वापस लौटा दिया। कुछ देर बार जब तीसरी बार आनंद झरने पर पहुंचा, तो देखकर चकित हो गया। झरना अब बिलकुल निर्मल और शांत हो गया था, कीचड़ बैठ गया था और जल बिलकुल निर्मल हो गया था।

महात्मा बुद्ध ने उसे समझाया कि यही स्थिति हमारे मन की भी है। जीवन की दौड़-भाग मन को भी विक्षुब्ध कर देती है, मथ देती है। पर कोई यदि शांति और धीरज से उसे बैठा देखता है रहे, तो कीचड़ अपने आप नीचे बैठ जाता है और सहज निर्मलता का आगमन हो जाता है।


----निशान्त यादव  

Friday, 1 May 2015

जीवन खोने पाने का खेल ही है !



जीवन खोने पाने का खेल ही है !
कुछ पाने की चाह लिए !
फिर उसके खो जाने का बोझ ही है !
कुछ पाने की खोज में भटकना !
फिर मिल जाने पर उसे छोड़ देना !
ये जीवन की कभी न खत्म होने वाली दौड़ ही है !

मानव हूँ तो चिंतन भी है , इसी लिए भटकन भी है !
भटकन से लौटना  !
फिर खुद को इस दौड़ में  झोंक देना  !
ये कहानी हम सब की है !

मानव हूँ तो इक्छा भी है !
अनिक्छा से इक्छा की पूर्ति करना !
फिर इक्छा का अनिक्छा में वदल जाना !
ये सब विस्थापन के शून्य जैसा है !
खोने - पाने , इक्छा पूर्ति की दौड़ में हाँफते हुए दौड़ना !
फिर दौड़ते- दौड़ते दम तोड़ देना !
ये भी विस्थापन का शून्य ही है !
जीवन का अंत शून्य है !


---निशान्त यादव