Friday, 30 May 2014

ये जो पैरो के निशां तुमने छोड़े हैं

ये जो पैरो के निशां तुमने छोड़े हैं                                                              
ढूढ़ते तुम्हे इनपे चल के आया हूँ 

ये जो छोड़ी है 
तुमने हर निशानी अपनी 
पता तुम्हारा हर निशानी से पूछता आया हूँ 

हंसी मिली तुम्हारी ,
मौन थी , 
बोली ..
तुम उसे छोड़ आये हो 

कुछ पग चिन्ह और नापे
ये मौन की तरफ थे
यहाँ तुम्हारे कदमो आहट है 


सफर ऐ जिंदगी कठिन है
असंभब तो नहीं
लौट आओ इस सफर से
हसीं तुम्हारे मिलन को रोती है
ये जो पैरो के निशां तुमने छोड़े हैं......

                                                    (निशान्त यादव )

Thursday, 29 May 2014

कदम मिलाकर चलना होगा - श्री अटल बिहारी वाजपेयी

पूज्य श्री अटल बिहारी वाजपेयी की ये कविता सबसे प्रिय कविताओं में से एक है मन नहीं माना आज में इसे अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ 

--------------------------------------------------                                  
कदम मिलाकर चलना होगा,
बाधाएं आती हैं आयें,
घिरे प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारें,
सिर पर बरसे यदि ज्वालायें,
निज हाथों से हंसते -हंसते,
आग लगाकर जलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
हास्य-रुदय में, तूफानों में,
अमर असंख्यक बलिदानों में,
उद्धानों में वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीडाओं में पलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
उजियारे में अन्धकार में
कल का थार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में दीर्घ हार में
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को डालना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.

                       

Monday, 26 May 2014

नयी बारिश ! पुरानी यादें !

नयी बारिश पुरानी यादों को धो देती हैं
जैसे पीपल के पत्ते पे जमी मिटटी को धो देती हैं                     

तेरी यादें अब भी कही कोने में छिपी हैं
ये फिर से रो देती हैं
कल कुछ बूँदें आई थी इन्हे बहाने को
मगर ये दरवाजे लगा के बैठी हैं 

अबके सावन का इंतजार है इनको
मौसमो पे बड़ा एतवार है इनको
अबके सावन भी कुछ नाराज है
फागुन की तवियत भी कुछ नासाज है
में जव भी कुछ यूँ लिखता हूँ
जमाना कहता है कि कोई याद बाकि है
ऐ ज़माने भला याद कहा जाती है

(निशांत यादव )

Saturday, 24 May 2014

तेरे चेहरे पे फिर से कोई उलझन हैं तू फिर से कहीं खोया है

तेरे चेहरे पे फिर से कोई उलझन हैं तू फिर से कहीं खोया है ,
तेरे चेहरे पे फिर से कई शिकवे हैं तेरे चेहरे से तुझे जाना है

इक शिकायत है मेरी तुझसे क्यूँ तू मुझसे बेगाना है
मुझे फिर से बता तेरी बेरुखी का क्या फ़साना है

लौट आ अब में तनहा हूँ
मेरी तन्हाई को तुझसे बेहतर किसने जाना हैं                                      
चल फिर से सपनो का आशियाँ बसायेंगे
जिसमे सिर्फ में और तू ही जायेंगे

ये सच है ये सपना अभी अधूरा है
मुझे फिर से बता क्यूँ तूने खुद को मुझसे छीना है
तेरे बिन ये जिंदगी अधूरी है अब जीना सिर्फ मेरी मजबूरी है

लफ्ज बहुत है मगर वक्त की कमी है
चलो अब चलते हैं मेरी आँखों में फिर से नमी है

........निशान्त यादव......

Friday, 23 May 2014

चाँद दाग लेकर भी खामोश है, में बेदाग हूँ मगर बेचैन हूँ

खामोश चांदनी रात है 
चाँद में ठंडक हैं ,
मगर आँखों से नींद खफा है ,
चाँद दाग लेकर भी खामोश है 
में बेदाग हूँ मगर बेचैन  हूँ 
कल फिर से दिन आएगा ,
फिर से तपिश होगी ,
ठंडक होगी , मगर काम में व्यस्त होने की !

*निशांत यादव *

Thursday, 22 May 2014

अनगिनत तारो में ढूढ़ता हूँ तुझे

अनगिनत तारो में ढूढ़ता हूँ तुझे 
टूटते तारे से पूछता हूँ तुझे 

अगर तू है तो दिख तो सही 
देख तेरे बिन कितना अकेला हूँ में 

पथराई आँखे तेरा अक्स मांगती हैं
झूट ही सही तेरा भरम मांगती है

में मजवूर हूँ मेरे पास सिर्फ आंसू हैं
मगर ये इनसे भी इनकार चाहती हैं

अगर तू है तो चमक तो सही
ये आँखे तेरा सबब मांगती हैं

(निशांत यादव ) 











Sunday, 11 May 2014

मातृ दिवस पर दुनिया की सभी माताओं के लिए समर्पित

मदर्स डे एक ऐसा दिन जिस दिन हर कोई अपनी माँ को कोई नायाव सा तोहफा देना चाहता है
आधुनिक विश्व में खास तौर से भारत में ऐसे तमाम दिवस जो किसी रिश्ते को समर्पित होते हैं का चलन बढ़ गया है चाहे मदर्स डे चाहे फादर्स डे , अधिकांश लोग इन खास दिनों में अपने खास रिश्तो को खास बनाना चाहते हैं
दरअसल हुआ ये है की हम आज के व्यस्त जीवन में अपने रिश्तो को सहेजने का समय ही नहीं निकल पाते हैं हम अपने रोजमर्रा के कामो में इतने उलझे रहते हैं मानो की काम करने की कुम्भकर्णी नींद में सो गए हों ये खास दिन हमें अपनी इस नींद से जगाने का काम करते हैं लेकिन यहाँ एक सवाल खड़ा होता है कि हम एक दिन जागने के बाद फिर सो जाते हैं एक उस दिन के बाद फिर सब कुछ वहीं का वहीँ , हम फिर से उलझ जाते हैं उसी व्यस्त जीवन में |



अक्सर बेटे जब बड़े हो जाते हैं तो माता पिता से किनारा करने लगते हों छोटा बेटा सोचता हैं माँ को बड़े के पास भेज दूँ बड़ा सोचता है छोटे के पास भेज दूँ इसी इधर उधर में हम अपनी माँ को और उसके ह्रदय को छलनी करते रहते हैं
यहाँ मुझे मुनव्वर राना साहव की कुछ पक्तियां याद आती हैं
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई !
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में मां आई !!
पुराणो और बुजुर्गो का कहना है माँ बच्चे की प्रथम गुरु होती है और ये सच भी है एक बालक अपनी माँ के जितने करीव होता है उतना शायद किसी के नहीं | जव घर में पिता जी से पैसे मांगने होते हैं तव हम अपनी माँ के जरिये ही पिता तक अपनी बात पहुँचाते हैं माँ के पास हमारे हर सवाल का जबाब होता है |
जव खाने में सब्जी काम होती है, तो माँ अपने बच्चो को वो सब्जी दे देती और खुद रूखी रोटी खा लेती है |
ऐसे न जाने कितने माँ के त्याग है हम अपनी माँ का कर्ज कभी नहीं उतार सकते
ये ऐसा कर्ज है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता !
मैं जब तक घर न लौटूं मेरी माँ सजदे में रहती है !!
कोई भी दुःख या संकट हो माँ खुद सब सहन कर जाती है | लेकिन अपने बच्चे पर कोई आंच नहीं आने
देती | माँ की दुआएं हमेशा हमारे सर पर साये की तरह रहती हैं
घेर लेने को मुझे जब भी बलाएं आ गईं !
ढाल बनकर सामने माँ की दुआएं आ गईं !!
जिंदगी में हर रिश्ते की अपनी एक अहमियत होती है लेकिन मेरी नज़र में माँ का रिश्ता सबसे बड़ा होता है और हमें इस रिश्ते की क़द्र और हिफाजत करनी चाहिए !
माँ के प्रभाव को कवि ओम व्यास जी ने कुछ इस तरह कहा है ......
बहुत रोते हैं मगर दामन नम नहीं होता !
इन आँखों के बरसने का कोई मौसम नहीं होता !!
में अपने दुश्मनो के बीच भी महफूज रहता हूँ !
मेरी माँ की दुआओं का खजाना कम नहीं होता !!
मैं अपने इस लेख को अपनी और इस दुनियां की सभी माताओं के चरणो में समर्पित करता हूँ
‪#‎HappyMothersDay‬
(निशांत यादव )

Friday, 9 May 2014

तुमने हाथ कुछ ऐसे छुड़या मुझसे,जैसे तुमसे कोई रिश्ता ही न था

कोई शिकायत थी तो बताया होता , कोई शिकवा था तो कहा होता                        
तुमने हाथ कुछ ऐसे छुड़या मुझसे , जैसे तुमसे कोई रिश्ता ही न था ,  
                                    
कोई ख़ुशी थी तो बताई होती , कोई दुःख था तो बांटा होता 
तुमने हाथ कुछ ऐसे छुड़या मुझसे , जैसे तुमसे कोई रिश्ता ही न था ,

में इंतजार करता रहा तुम्हारे मुड़ने का , काश तुम भी मुड़े होते ,
तुमने हाथ कुछ ऐसे छुड़या मुझसे , जैसे तुमसे कोई रिश्ता ही न था ,

में जव भी अकेला होता तुम्हारी यादें मुझसे मिलने चली आती , 
काश तुम भी उनसे मिले होते ,
तुमने हाथ कुछ ऐसे छुड़या मुझसे , जैसे तुमसे कोई रिश्ता ही न था ,

बिताये साथ पल जो हम तुम ने सहेज कर रखे है मेने , काश तुमने भी उन्हें सहेज कर रखा होता ,
तुमने हाथ कुछ ऐसे छुड़या मुझसे , जैसे तुमसे कोई रिश्ता ही न था ,

शब्द बहुत है पर अब लिखूंगा नहीं मैं , काश तुमने इन शब्दों को समझा होता
तुमने हाथ कुछ ऐसे छुड़या मुझसे , जैसे तुमसे कोई रिश्ता ही न था

अब कभी लौट कर देखोगे तो दिखूँगा नहीं में , दर्द ऐ मुह्हबत को सहूँगा नहीं में ,
ये अंतिम बधाई तुम्हारे लिए है अब इसे कभी कहूँगा नहीं में
(निशांत यादव)





Monday, 5 May 2014

!!! सुकून के ठन्डे झोके और पहाड़ियों का दर्द !!!

जीवन की आपाधापी में मन अस्थिर हो जाता है निर्णय करने का बोध नहीं रहता कि आखिर क्या चाहिए | सच्चाई ये है कई चाहतो के सिलसिले ने ही इसे अस्थिर किया है चाहतो का न होना भी मनुष्य की प्रगति को रोक देता है लेकिन सीमा से अधिक होने ये मनुष्य को अस्थिर कर देती है
"कभी -कभी सोचता हूँ की दूर किसी ऊँची पहाड़ी के सबसे ऊँचे कोने पे खड़ा हो जाऊ और बहां से गुजरने बाले ठंडी हवा के झोको का इंतजार करू और जब वो बहां से गुजरे तो उनसे पूछु की तुम इतने सुकून के ठन्डे झोके लाते कहाँ से हो | क्या तुम जहाँ से आते हो बहां कोई दुःख नहीं , कोई हबस नहीं , कुछ पाने की चाहत नहीं | शायद तुम्हारे यहाँ अपने लिए कुछ करने की चाहत न होगी लोगो में |
इन सवालों के जवाव ढूढ़ते -ढूढ़ते उवासी भरा दिन यूँ ही गुजर गया | मैं खामोश रात के नींद से भरे हुए सपनो में खो गया अचानक मैंने  अपने आप को उस पहाड़ी पे पाया जिसकी मुझे सुबह तलाश थी मैं बड़ी खुशी से ठंडी हवा के झोको के इंतजार में बैठ गया | तभी इक पहाड़ी शिकायत भरे लहजे में मुझसे बोली तुम यहाँ क्यूँ आये हो ? मैंने बड़े हक़ के साथ कहा मैं यहाँ किसी से मिलने आया हूँ ! मैं सुकून से मिलने आया हूँ उसने कहा तुम हो कौन ? मैंने  कहा मैं इन्सान हूँ पहाड़ी गुस्से से लाल हो गई उसकी सुन्दरता की हरियाली जेसे बदसूरती में बदल गई | मैं घबरा गया !
मैंने कहा मैं इन्सान हूँ प्रकृति का पुत्र और तुम उसकी पुत्री हो हमारा रिश्ता तो भाई -बहन का है फिर तुम मुझसे इतनी नाराज क्यूँ हो | पहाड़ी नाराज हो कर वोली तुम इंसानों ने इस रिश्ते को निभाया ही कहा है तुमने अपनी चाहतो की हवस में हमारे बदन से हरियाली को नोच कर अपनी कंक्रीटों के महल बनाए हैं जाओ मेरा और तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं है और इतना कहते हुए उसने मुझे अपने आप से झिटक दिया | मैं उस पहाड़ी से निचे गिरने लगा !
तभी अचानक मैंने  अपने आप को हवा में तैरता महसूस किया | इस हवा में इक ठंडा सा एहसास था
मुझे लग गया कि जिसकी मुझे तलाश थी वो आ गया है मैंने  जोर से आवाज लगाई ऐ ठंडी हवा के झोको क्या तुम सच मुच आगये हो | तभी इक आवाज आयी हाँ हम आगये ! मैं खुशी से झूम उठा ! मेरा मन स्थिर हो गया | मैंने  उनसे गुजारिश की अब मैं आपके साथ ही रहूँगा ! मुझे अपने साथ ले चलो !
फिर अचानक मैंने  तपिश को महसूस किया ! ठंडी हवा के झोके जोर- जोर से हाफ्ने लगे | मुझसे बोले तू है कौन ? मैंने  कहा मैं इन्सान हूँ ! इतना सुनते उन्होंने मुझे अपने आप से अलग कर लिया और मैं नीचे गिरने लगा !!
गिरते हुए मैंने  देखा की मैं इक आग के गोले पर गिर रहा हूँ और उस गोले पे खड़े मेरे अपने इन्सान आग उगलती हुई हंसी हस रहे हैं तभी धक् से मेरी आंख खुली मैं पसीने से लथ-पथ घबराया हुआ बदहवास सा भागा- भागा माँ के आंचल में छुप गया माँ ने मेरे माथे अपना हाथ रखा और मैंने  सुकून का इक ठंडा झोका महसूस किया ..... 

बस इतनी सी थी ये कहानी

(निशान्त यादव )

Thursday, 1 May 2014

अपने वास्ते इम्तहान

तुम लाख चाहे मेरी आफत में जान रखना 
पर अपने वास्ते भी कुछ इम्तहान रखना

वो शक्श काम का है दो ऐव भी है उस में 
इक सर उठा के जीना दूसरा मुहं में जुवान रखना

वदली सी लड़की से कुल शहर कफा है 
वो चाहती है पलकों पे आसमान रखना

केवल फकीरों को है ये कामयावी हासिल 
मस्ती में जीना और खुश सारा जहान रखना

.....निशान्त यादव ......