उत्तर प्रदेश में पहले चरण के चुनाव की तिथि अब बस एक दिन बाद है पहले चरण में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ७२ सीटों पर
चुनाव होने वाले है । सभी पार्टियों ने अपने चुनाव प्रचार में खास तौर पर बड़े नेताओं के भाषणों में विकास , कानूनव्यबस्था मुद्दा रहता है और रहा है , अब सवाल यही है कि क्या वास्तव में जनता के बीच इन मुद्दों का असर है जब पत्रकार माइक और कैमरा के सामने जनता से पूछते हैं तो जनता भी चतुर राजनेता की तरह इन्ही मुद्दों की बात करती है लेकिन हकीकत तो इससे परे है मैं उत्तरप्रदेश के बारे में कह सकता हूँ कि चुनाव सिर्फ विकास और कानून व्यवस्था के मुद्दों पर नहीं लड़े जाते और न ही जनता इन मुद्दों के आधार पर वोट देती है पूरे प्रदेश में एक आम सहमति के तौर पर हमें लग सकता कि इस बार किसकी हवा है लेकिन जब आप प्रत्येक विधानसभा स्तर पर आंकलन करें तो समीकरण अलग है लोकल स्तर पर चुनाव लड़ने दो ही मुख्य आधार है एक जाति और धर्म के आधारपर गोलबंदी और दूसरा कि उस विधायक ने पाँच साल ,जनता को थाने , तहसील और जिले के प्रशासन के जरिये कितना ठगा या नहीं ठगा । उत्तर प्रदेश के कई विधानसभा इलाको में मोहल्ले और गाँव स्तर पर नेता होतें है जो विधायक , जनता और प्रशासन के बीच कैरियर का काम करते हैं थानों ,तहसीलों , सरकारी दफ्तरों में जनता को बिना मिठाई दिए घुसने का मौका नहीं मिलता , आप थाने में जाइये आपकी रिपोर्ट नहीं लिखी जाएगी फिर अपने मौहल्ले नेता से मिलिए वो विधायक जी से बात करेगा , आपके साथ होने दावा करेगा थाने में आपको दरोगा जी का भय दिखायेगा और मेज के नीचे से आपकी जेब ढीली होगी , दरअसल दिक्कत यही है ये मौहल्ले और गावँ स्तर के कहने से ही कम पढ़ी लिखी जनता वोट भी पर देती है इस चुनाव के दौरान मैं कई ऐसे लोगो से मिला जिनका यही कहना होता है कि हम तो फलां भाई के कहने पर वोट देंगे जहाँ वो जायेंगे वहीँ हम . अब जब हमने अपनी हक़ की लड़ाई के लिए ऐसे ठेकेदार चुने हैँ तब किसी न्याय की उम्मीद करना बेमानी ही है
दूसरा आधार है जाति और धर्म क़ी गोलबंदी , आप लोकल स्तर पर बात कीजिये लोग यही कहते हुए मिलेंगे क़ी हम तो अपने जाति के भाई या धर्म वाले को वोट देंगे , तो सवाल यही कि जब जनता और नेता चुनाव में इन्ही आधारों पर वोट देते तब ये विकास का ढकोसला क्यूँ है और दूसरा ये कि इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है इसकी जिम्मेदारी नेताओं पर तो है ही साथ हम आम लोगो क़ी भी है हमारा नेताओं और अधिकारियों के प्रति नजरिया क्या है क्या हम उनकी प्रति हुजूरी का भाव रखते हैँ हाँ हम ऐसा ही भाव रखते हैँ जबकि भारत के लोकतान्त्रिक ढांचे में कतई स्वीकार नहीं है हम नेताओं से सवाल नहीं करते , हम उनसे नहीं पूछते कि आपने जो वादे किये उनका क्या हुआ , हम उनसे नहीं पूछते कि आप लोकतंत्र क़ी प्रक्रियाओं का पालन क्यूँ नहीं करते , और यही कारण है कि हमारा हर स्तर पर शोषण होता है प्राइमरी शिक्षा , गाँव का विकास सबका बुरा हाल है चुनाव के समय नेता आता है हम उसके जयकारे लगाते हैँ मालाएं पहनाते हैँ और जाति -धर्म के हिसाब से वोट दे आते हैँ और अगर हम में से कोई उस सब का विरोध करना चाहे , सवाल पूछना चाहे तो खुद ही उसको दोषी ठहरा कर नेताओं को आसान सा रास्ता दे देते हैँ गौर से देखिये हम चुनावों में नारे भी वही लगाते तो पार्टियां तय करती है जब तक हमारे नारों में जिन्दावाद और जय जयकार रहेगा हम ऐसे ठगे जातें रहेंगे , हमें चटुकारिता और सामंती नारों क़ी नहीं नेताओं से सवाल करने क़ी जरूरत है जिस दिन ये हो जायेगा हम इस पवित्र लोकतंत्र क़ी आत्मा के साथ न्याय कर पाएंगे , सबको सबका हक़ उसी दिन मिलेगा जब जिंदावाद के नारों क़ी जगह सवाल होंगे ...
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