ये बात उन दिनों
की है जब में दर्जा 2 में पढता था, मुहल्ले में ही एक छोटा सा स्कूल था जिसमे मुझे
अक्सर मेरे पिता और कभी कभी बड़ी बहन साथ पहुँचाने आती थी, स्कूल में अपना एक यार था
शाहनवाज | था क्या वो तो अब भी कहीं होगा मगर कई सालो से उसकी खवर नहीं }खेर कहानी
कुछ ये कि वो अपना इकलौता और पक्का यार था मुझसे कई गुना तहजीव वाला खास कर बोलचालमें। उसके अब्बा और अम्मी बचपन मतलब उसके
पैदा होने के कुछ दिन बाद ही गुजर गए , चाचा और चाची ने उसे पाला- पोसा
हमारे उस मोहल्ले
में एक मस्जिद थी जिसके परकोटे में शकरकंद की फसल हुआ
करती , दोपहर को अक्सर मैं और शाहनवाज उस परकोटे को कूद के शकरकंद उखाड़ने जाया करते
थे।मैं तो डरता था लेकिन वो हिम्मती था । एक बार मौलवी साहब ने देख लिया । बहुत दूर
तक खदेड़ा लेकिन हम उनके हाथ नहीं आये, उसके बाद मैं कभी उधर नहीं गया। ईद आने के कई
दिन पहले से वो मेरी माँ से जिद करता था की मुझे ईद पर उसके घर जाने दे । ईद के दिन
सुबह की नमाज के बाद वो मुझे लिवाने आता और हम दोनों सबसे पहले मीठे चावल और गोले की
खुरचन खाया करते थे बहुत घूमते थे पूरे टोले में न जाने किस किस के घर ....
ये खुशनुमा
दौर कई साल चला । हम उस मोहल्ले को छोड़ कर 2 किलोमीटर दूर दूसरे मुहल्ले में अपने खुद
के मकान में आगये फिर वो स्कूल भी छूट गया ।लेकिन शाहनवाज का साथ नहीं छूटा वो मुझे
अपनी साईकिल पे बिठा के ईद के दिन अपने घर ले जाया करता था ।
माँ अक्सर मुझे उसके बोलने के तरीके पर उलाहना देती थी देख शाहनवाज कैसे अच्छा बोलता है और तू अभी तक गाँव की बोली बोलता है मेरी भाषा में सुधार उसी की बजह से आया । वक्त बढ़ता रहा हम दर्जा दर दर्जा पढाई में आगे बढे और शाहनवाज पढाई छोड़ कर अलीगढ़ रोजगार के लिए टेलर की दुकान पर चला गया। कई साल वो बापिस नहीं आया फिर जब में दर्जा 10 में था तब वो एक बार ईद पर आया और इस बार मैं अपनी साईकिल से उसके घर गया वही पुराने दिन फिर से जिए वो फिर बापिस गया और 2-3 साल तक कोई खवर नहीं मिली वो जमाना फेसबुक का नहीं था हमारे पास तो फोन भी नहीं था सो खवर मिलने का ऐसा कोई जरिया नहीं था |
एक दिन जब में बरेली से अपने घर आया तो खबर माँ ने बताया शाहनवाज आया था तेरा नंबर ले गया है (अब मेरे पास एक रिलायन्स का फोन आगया था) मुझे उस दिन बड़ी ख़ुशी हुई । यारी होती ही ऐसी है जिसमे दुरी बड़ी खलती है खेर अगले दिन वो आया । हम गले मिले हालचाल लिए और उसने अपनी जिंदगी की हालात वयां की । भाई की शादी हो चुकी थी और अपनी टेलरी की दुकान भी हो गई थी । और यहाँ हम अभी पढ़ ही रहे थे । मेने कहा यार बड़ी जल्दी ? वो मुस्कुरा के बोला क्या करू पढाई तो की नहीं । हालातों ने काम करना सीखा ही दिया , अब रिश्तेदारों ने जोर दिया तो ये भी कर ली
हम खूब हँसे … हँसने से खलिश हल्की पड़ जाती है घंटों की ये मुलाकात बड़ी जल्दी बीत गई । वो चला गया और आज तक मुझे उसकी खबर नहीं है हालातों ने रिश्तों की डोर हलकी कर दी …
उम्मीद है वो जहाँ है मजे
से होगा । मुझे पता है इस तेज दुनिया में वो मुझे मिलेगा जरूर। अबके कुछ ऐसा करूँगा
की इस डोर का एक धागा मेरे हाथ में रह जाये ताकि हर ईद को में उसे मुवारक कह सकूँ ।
मुझे बैसे तो उसकी याद नहीं आती लेकिन हर ईद को अनायास ही वो मुझे याद आजाता है बचपन
में बने रिश्तों की छाप ऐसी ही होती है वो जब तब अपना रंग छोड़ ही देती है
ईद की रात का आधा पहर बीत चूका है और मैं उन यादों को हमेशा के लिख के लिए रखने की कोशिश में लगा हूँ
दोस्त तुम जहाँ भी हो तुम्हे ईद मुवारक !!
ईद की रात का आधा पहर बीत चूका है और मैं उन यादों को हमेशा के लिख के लिए रखने की कोशिश में लगा हूँ
दोस्त तुम जहाँ भी हो तुम्हे ईद मुवारक !!
--- तुम्हारा नृपेंद्र
( ये नाम दर्ज तीन तक रहा फिर
दूसरे स्कूल में नाम निशान्त हुआ , लेकिन उसने मुझे हमेशा नृपेंद्र ही कहा )
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