अभी तीन चार दिन फेसबुक से दूरी रही .. लौटते ही पता चला रमाशंकर यादव 'विद्रोही' नहीं रहे है मैं सच कहूँ तो विद्रोही जी को आज से पहले मैने कभी नहीं जाना , काफी कुछ तो यहाँ फेसबुक से पता चला बाकि और ढूंढा तब कविता कोष पर उनकी लिखी कवितायेँ मिली .. एक डॉक्यूमेंट्री भी मिली ... जेएनयू से उनका लगाव और समाज के खोखलेपन को तार-तार करती उनकी कवितायेँ दिलोदिमाग पर छा गई है सोचता हूँ मैं अभागा ही था जो उनसे मिल न पाया .... उनकी लिखी ये कविता पोस्ट करते हुए उन्हें श्रदांजलि अर्पित करता हूँ ..
मैं अहीर हूँ
और ये दुनिया मेरी भैंस है
मैं उसे दुह रहा हूँ
और कुछ लोग कुदा रहे हैं
ये कउन (कौन) लोग हैं जो कुदा रहे हैं ?
आपको पता है.
क्यों कुदा रहे हैं?
ये भी पता है.
लेकिन एक बात का पता
न हमको है न आपको न उनको
कि इस कुदाने का क्या परिणाम होगा
हाँ ...इतना तो मालूम है
कि नुकसान तो हर हाल में खैर
हमारा ही होगा
क्योंकि भैंस हमारी है
दुनिया हमारी है!
कविता साभार http://kavitakosh.org/
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