Saturday, 26 December 2015

ओ हुस्ना मेरी, यादों पुरानी में खोया



लाहौर के उस पहले जिले के,
दो परगना में पहुंचे,
रेशम गली के दूजे कूचे के,
चौथे मकां में पहुंचे,
कहते हैं जिसको दूजा मुल्क,
उस पाकिस्तान में पहुंचे,
लिखता हूं खत मैं हिंदुस्तां से
पहलु-ए-हुस्ना में पहुंचे,
ओ हुस्ना…
मैं तो हूं बैठा,
ओ हुस्ना मेरी, यादों पुरानी में खोया,
पल पल को गिनता
पल पल को चुनता
बीती कहानी में खोया
पत्ते जब झड़ते हिंदुस्तां में
बातें तुम्हारी ये बोलें
होता उजाला जब हिंदुस्तां में
यादें तुम्हारी ये बोलें
ओ हुस्ना मेरी ये तो बता दो
होता है ऐसा क्या उस गुलिस्तां में
रहती हो नन्ही कबूतर सी गुम तुम जहां
ओ हुस्ना…
पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्तान में वैसे ही
जैसे झड़ते यहां
ओ हुस्ना…
होता उजाला क्या वैसा ही है
जैसा होता है हिंदुस्तां में…हां
ओ हुस्ना…
वो हीर के रांझों, के नगमें मुझको
हर पल आ आके सताएं
वो बुल्ले शाह की तकरीरों के
झीने झीने से साये
वो ईद की ईदी, लंबी नमाजें, सेवइयों की झालर
वो दीवाली के दिये, संग में बैसाखी के बादल
होली की वो लकड़ी जिसमें
संग संग आंच लगायी
लोहड़ी का वो धुंआ जिसमें
धड़कन है सुलगायी
ओ हुस्ना मेरी
ये तो बता दो
लोहड़ी का धुआं क्या अब भी निकलता है
जैसे निकलता था, उस दौर में हां… वहां
ओ हुस्ना
हीरों के रांझों के नगमे
क्या अब भी सुने जाते हैं वहां
ओ हुस्ना
रोता है रातों में पाकिस्तान क्या वैसे ही
जैसे हिंदुस्तान
ओ हुस्ना
पत्ते क्या झड़ते हैं क्या वैसे ही
जैसे कि झड़ते यहां
होता उजाला क्या वैसे ही
जैसा होता ही हिंदुस्तां में… हां

ओ हुस्ना…



Friday, 18 December 2015

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको /अदम गोंडवी



अदम गोंडवी , मूल नाम रामनाथ सिंह , आज अदम गोंडवी साहव की पुण्यतिथि है गोंडवी साहब ने  अपनी कविताओं में हिंदुस्तान के गांव  देहात के दर्द  , देश की शोषकवादी राजनीती , सामंतवाद , पूंजीबाद , जातिगत छुआछूत पर प्रहार करती हुई कवितायेँ लिखी .. उनकी लिखी कविता जो आज भी एक दम जस की तस है जिसे अक्सर लोग राजनीती पर कटाक्ष के रूप में इस्तेमाल करते है
"काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में"

गोंडवी साहब जैसा धारदार लेखन कहीं नहीं मिलता , मैं आज के दिन उनकी कुछ कवितायेँ शेयर कर रह रहा हूँ ..
1:
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

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2:
जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में
गाँव तक वो रोशनी आएगी कितने साल में

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई
रमसुधी की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में

खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में

जिसकी क़ीमत कुछ न हो इस भीड़ के माहौल में
ऐसा सिक्का ढालिए मत जिस्म की टकसाल में

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3:
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है

लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है

तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है


                                                                       निशान्त यादव ..

Thursday, 10 December 2015

दुनिया मेरी भैंस / रमाशंकर यादव 'विद्रोही'




अभी तीन चार दिन फेसबुक से दूरी रही .. लौटते ही पता चला  रमाशंकर यादव 'विद्रोही' नहीं रहे है मैं सच कहूँ तो  विद्रोही जी को आज से पहले मैने कभी नहीं जाना , काफी कुछ तो यहाँ फेसबुक से  पता चला बाकि और ढूंढा तब कविता कोष पर उनकी लिखी कवितायेँ मिली .. एक डॉक्यूमेंट्री भी मिली ... जेएनयू से उनका लगाव और समाज के खोखलेपन को तार-तार करती उनकी कवितायेँ दिलोदिमाग पर छा गई है सोचता हूँ मैं अभागा ही था जो उनसे मिल न पाया .... उनकी लिखी ये कविता पोस्ट करते हुए उन्हें श्रदांजलि अर्पित करता हूँ ..

मैं अहीर हूँ
और ये दुनिया मेरी भैंस है
मैं उसे दुह रहा हूँ
और कुछ लोग कुदा रहे हैं
ये कउन (कौन) लोग हैं जो कुदा रहे हैं ?
आपको पता है.
क्यों कुदा रहे हैं?
ये भी पता है.
लेकिन एक बात का पता
न हमको है न आपको न उनको
कि इस कुदाने का क्या परिणाम होगा
हाँ ...इतना तो मालूम है
कि नुकसान तो हर हाल में खैर
हमारा ही होगा
क्योंकि भैंस हमारी है
दुनिया हमारी है!


                                                                                  कविता साभार http://kavitakosh.org/