दिवाली खुशिओं , उजालो का त्यौहार है हर कोई ख़ुशी मनाता है लेकिन कोई ऐसा
भी होता है जिसके ह्रदय में कहीं विरह का दुःख है और चेहरे पर दिवाली की
मुस्कान , जब वो सबके साथ होता तब चेहरे पर ख़ुशी रहती है लेकिन जब वो अकेला
छत की मुंडेल पर बैठा अपने प्रिये की यादो में खो जाता है उसके सदा के
लिए चले जाने का दुःख आज उसे कचोट रहा है अब वो इस ख़ुशी के त्यौहार में
अपने दुःख को किसे सुनाये , ये कविता प्रिये से विरह के दुःख और दिवाली पर उसकी याद
से निकली है उम्मीद है आपको पसंद आएगी
प्रिय तुम बिन दीप जलाऊ कैसे
विरह की जलती ज्वाला से खुशियों के दीप जलाऊं कैसे
विरह की जलती ज्वाला से खुशियों के दीप जलाऊं कैसे
तुम जो ठहरे हो नभ में एक सितारा बनकर
रात अमावस फैल रही है तुम बिन दीप जलाऊ कैसे
रात अमावस फैल रही है तुम बिन दीप जलाऊ कैसे
देखो , कहो चाँद से आज रात क़न्दीला बन जाये
या तारो कह दो के दीवारो पर झालर बन जाएँ
या तारो कह दो के दीवारो पर झालर बन जाएँ
जीवन पथ पर साथ चले थे जीवन के नए सृजन में
टूटा चाक मेरे जीवन का तुम बिन दीप बनाऊ कैसे
टूटा चाक मेरे जीवन का तुम बिन दीप बनाऊ कैसे
चारो और उजाला फैला लगा हुआ दीपो का पहरा
मेरा अंतर खाली खाली यहाँ अमावस का है पहरा
मेरा अंतर खाली खाली यहाँ अमावस का है पहरा
मैं दीपक था तुम लौ मेरी , तुम शम्मा थी मैं परवाना
टूटा दीपक , शम्मा भी बुझी , अब न रहा मैं परवाना
टूटा दीपक , शम्मा भी बुझी , अब न रहा मैं परवाना
आँखे मांग रही मुझसे तेरा अक्स प्रिये
क्या कह दूँ अब न आओगी कभी प्रिये
क्या कह दूँ अब न आओगी कभी प्रिये
प्रिय तुम बिन दीप जलाऊ कैसे .....
.....निशान्त यादव
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