Thursday, 10 September 2015

आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख / दुष्यंत कुमार

दुष्यंत कुमार की कविताओं को पढ़ने का मलतब है क्रांति से मिलना . मुझे तो उनकी कवितायेँ जगाये रखती है आप जब पढ़ते है " एक जंगल है तेरी आँखों में , मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ " तब लगता प्रेम के लिए इससे वेहतर और क्या शब्द होंगे लेकिन जब आप उनकी "हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।" तब आप उसी एहसास के साथ क्रांति से रूबरू होते है

इसी के क्रम दुष्यंत कुमार की कविता साये में धूप  से ..




आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख

अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ ,उन हाथों में तलवारें न देख

दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख

ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है
रोज़नों को देख,दीवारों में दीवारें न देख

राख, कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख.

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