Saturday, 26 September 2015

जीवन के दो सच ! एक अस्तित्व, एक अंत !


                                                                                              
                                                                                                     
जीवन के दो सच !
एक अस्तित्व, एक अंत !
इन के बीच यात्रा !
भरी मोह से ,
भरी त्याग से ,
भरी प्रेम से ,
भरी द्वेष से ,
भरी क्रोध से
भरी शांति से 
हमें जियें अस्तित्व की लड़ाई में !
मरें सिर्फ एक अच्छे अंत में !
अस्तित्व से अंत तक का सफर !
भरा युद्द से ,
भरा शांति से,
भरा दुष्टता से,
भरा करुणा से ,
भरा अपयश से ,
भरा यश से ,
अंत के बाद का सफर !
कैसा है ? क्यों है ?
ये सिर्फ कथ्य है तथ्य से परे !
हाँ सिर्फ कल्पना है !
ये शून्य होगा ,
ये अनंत होगा ,
ये नर्क होगा ,
ये स्वर्ग होगा ,
हम लड़े !
हम जियें !
अस्तित्व से अंत तक !
जीवन के दो सच !
एक अस्तित्व, एक अंत !



                                                                    ..  निशान्त यादव 

Saturday, 19 September 2015

सौ चांद भी चमकेंगे / जाँ निसार अख़्तर




सौ चांद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी
तुम आये तो इस रात की औक़ात बनेगी

उन से यही कह आये कि हम अब न मिलेंगे
आख़िर कोई तक़रीब-ए-मुलाक़ात बनेगी

ये हम से न होगा कि किसी एक को चाहें
ऐ इश्क़! हमारी न तेरे साथ बनेगी

हैरत कदा-ए-हुस्न कहाँ है अभी दुनिया
कुछ और निखर ले तो तिलिस्मात बनेगी

ये क्या के बढ़ते चलो बढ़ते चलो आगे
जब बैठ के सोचेंगे तो कुछ बात बनेगी



-----जाँ निसार अख़्तर


Monday, 14 September 2015

संभल जाइये ! देश मे शिक्षा , वैज्ञानिकता और सदभाव से प्रगति और उन्नति आएगी


अगर आप देश के नेताओं और उनके भाड़े के टट्टुओं के उन्मादी नारो और भाषणो से , देश की मीडिया के कुछ टी. आर. पी  लोलुप चैनल के हिसाब से अपने पड़ोस के किसी मुस्लिम , जैन , सिख या ईसाई परिवार के प्रति प्रेम या नफरत के भाव लाते है । तब आपको थोड़ा सावधान और समझदार होने की जरुरत है जो लोग पहले गोकशी का विरोध छाती पीट पीट कर करते थे आज वही बहादुर , गाय के रखवाले अपनी राजनीती चमकाने के लिए खुलेआम जैनो के सामने बीफ बेच रहे है ये काम अगर मुस्लिमो ने कर दिया होता तब हम अपनी नफरते लेकर उनके विरोध पहुंच गए होते । जब कुछ भी  खाना या न खाना हमारा अपना अधिकार तब हम एक पक्ष को लेकर इतने सतही क्यों है।

सतर्क और समझदार हो जाइये ये राजनीती आपके और हमारे सदिओं पुराने रिश्तो की जड़ो में मट्ठा डाल रही है जरा सोचिये हमने और आपने गाय के लिए क्या किया । जब देशी गाय ने दूध देना कम कर दिया या फिर बीमारी के कारन बाँझ हो गई हमने उसे अपने घर के खूंटे से खोल कर उस खूंटे पर अफ्रीकन ब्रीड की ज्यादा दूध देने वाली गाय नुमा भेंस को बांध लिया और खुली हुई गाय यहाँ शहर में कच्चा खा खा कर मर रही है

आप जरा सोचिये उपभोक्तावाद के इस संसार मे आप कितने प्राकृतिक बचे । जरा भी नहीं  हमें कॉर्न फ्लेक्स चाहिए , ओनियन चाहिए , सब्जी चाहिए , लेकिन अपना बेटा किसान नहीं चाहिए  ।  किसान  खुद अपने बेटे से खेती करवाना नहीं चाहता  ।  कारण साफ है  देश  जितना इन्वेस्टमेंट अन्य व्यवसाय मे हुआ , जितनी नयी सोच के लोग अन्य व्यवसाय में आये उतने लोगो ने कृषि मे आना मुनासिव नहीं समझा । जब किसान का कोई मुद्दा आता । जब गाय का कोई मुद्दा आता है हम इन राजनैतिक ठगो के साथ खड़े होते । लेकिन जब उन्माद खत्म होता तब सब चेतना खत्म हो जाती है क्या कोई पूछता है देश का किसान किस हालत मे हैं क्या कोई पूछता है की गाय किस हालत मे है आज देश के अंदर कितने पशु चिकित्सालय सही ढंग से काम कर रहे है और उनका स्तर क्या है किसी को खवर नहीं ।  इस लिए हमें देश की मूल समस्याओं पर लड़ना होगा । देश की राजनीती चाहती ही यही है की देश की जनता दंगे , जातिवाद , नफरत मे उलझी रहे । हमें इसी धुर्वीकरण के आधार पर वोट देती रहे  और हम देश की संसद मे मौज मारते रहें !

इसलिए  संभल जाइये !  देश मे शिक्षा , वैज्ञानिकता और सदभाव से प्रगति और उन्नति आएगी , धर्मान्धता , आपसी लड़ाई और द्वेष से नहीं ...

Thursday, 10 September 2015

आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख / दुष्यंत कुमार

दुष्यंत कुमार की कविताओं को पढ़ने का मलतब है क्रांति से मिलना . मुझे तो उनकी कवितायेँ जगाये रखती है आप जब पढ़ते है " एक जंगल है तेरी आँखों में , मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ " तब लगता प्रेम के लिए इससे वेहतर और क्या शब्द होंगे लेकिन जब आप उनकी "हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।" तब आप उसी एहसास के साथ क्रांति से रूबरू होते है

इसी के क्रम दुष्यंत कुमार की कविता साये में धूप  से ..




आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख

अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ ,उन हाथों में तलवारें न देख

दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख

ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है
रोज़नों को देख,दीवारों में दीवारें न देख

राख, कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख.

Wednesday, 2 September 2015

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये / दुष्यंत कुमार

दुष्यंत कुमार की हर रचना अंतर्मन को झकझोर कर रख देती है कुछ ऐसी ही ये रचनाहै

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये.