Sunday, 9 November 2014

कहीं खो गयी है माँ ... (A lost Mother )



जब हम अपने शहर या गांव  को छोड़ कर किसी दूसरे शहर में जाते है चाहे वह  रोजगार की तलाश हो या फिर एक अच्छे भविष्य की , तब हम धीरे -धीरे उस शहर के रंग में रंगने लगते है और जिस शहर या गांव  को छोड़ कर आये होते हैं वहां की सोच और संस्कार को धकियाते हुए इस शहर की दौड़ती भीड़ में शामिल हो जिंदगी को दौड़ाना चाहते है


लेकिन तभी भागते हुए हमारा पैर भावनाओं के स्पीड ब्रेकर से टकराता है कुछ लोग उसे पीछे की सोच मान कर अपनी जिंदगी की गाड़ी कुदा देते है चाहे ये गाड़ी टूटे या बचे इसकी परवाह भला किसको रहती है |


लेकिन कुछ लोग उस स्पीड ब्रेकर को देखकर रुक जाते हैं और अपने आप से पूछते हैं

क्या तुझमे है.. हिम्मत जो इस स्पीड ब्रेकर से जिंदगी की गाड़ी को कुदा सके ,

मै भी उनमे से एक हूँ भागती-दौड़ती जिंदगी के सफर में यूँ ही अचानक भावनाओं के स्पीड ब्रेकर पर रुका खुद से सवाल पूछ रहा हूँ |



इन्ही सवालो और जवावो से  जूझते हुए  सच्ची घटना पर आधारित ये कहानी लिखी है

यदि मेरे लिखे ये शब्द आपको भी दौड़ते हुए उस स्पीड ब्रेकर की तरह रोके और खुद के अंदर झाकने पर मजवूर करें तो समझ लीजिये आप इस शहर के नहीं हुए है

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शाहिद .. शाहिद….


मेट्रो ट्रैन में दूर से आती.. ये एक औरत की आवाज मेरे और करीव आती जा रही थी |

रोज मर्रा की तरह हर कोई अपने आप को किसी माध्यम में उलझाये हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहा था | इस दूर से आती आवाज ने लोगो की तन्द्रा को थोड़ा विचलित सा तो किया लेकिन लोग फिर अपने आप में या अपने साथ वाले अपने हमसफ़र में खो गए | मैं  भी मेट्रो के दरबाजे की तरफ मुंह किये कही खोया हुआ था मगर ये आवाज मेरे और करीव आती जा रही थी | ये आवाज मुझे और मेट्रो के डिब्बे में सवार लोगो को ज्यादा विचलित कर रही थी | आठ डिब्बे की ट्रैन में जैसे -जैसे वो औरत एक-एक डिब्बे को पार करती आ रही थी | इस आवाज की तीब्रता और अधिक बढ़ती जा रही थी मेने और यात्रिओं की तरह डिब्बे की गैलेरी में झांक कर देखा तो सिर्फ आवाज ही सुनाई दे रही वो औरत नहीं |


मेरे मन में तमाम सवाल कौंधे ???

आखिर ये औरत कौन है ?, इसकी उम्र क्या है  ?

ये इतनी बेचैनी से इस नाम की आवाज क्यों लगा रही है ?


अब तक ये सवाल मेरे मन में ही थे कि मुझे लोगो से इनके जवाव मिलने लगे , कोई वोला लगता है पागल है| मेट्रो में चिल्ला रही है | कोई वोला लगता है इसका कोई खो गया है तो किसी ने सिर्फ अपने चेहरे के भावो से ही अपने  जवाव दर्ज कर दिए , मेरा मन इन जवावो की तरफ गया लेकिन मेने खुद को रोक  उसके आने का इंतजार किया | मेने अचानक देखा कि  वो सत्तर साल की औरत भीड़ को चीरती हुई मेरे सामने आ गई, और दूसरी तरफ  डिब्बे में सन्नाटा छा गया | लोग निशब्द हो कर खड़े थे और सिर्फ एक ही आवाज मेरे कानो में जोर-जोर  से टकरा रही थी


शाहिद .. शाहिद.. , कहाँ  चलो गयो रे…


उस बक्त मुझे इस सन्नाटे ने अपनी तरफ खींच लिया , मैं भी उस भीड़ की तरह निशब्द खड़ा रहा जो अभी अभी मेरे मन में कौंधे सवालो का जवाव खुद ही दे रही थी वो बूढ़ी औरत इस आवाज के साथ मेरे करीव से गुजरती जा रही थी और मैं स्वार्थी सा भीड़ में शामिल हो चुपचाप खड़ा था , लोग शायद इस इंतजार में खड़े थे की ये हमसे पूछे , लेकिन वो सिर्फ एक ही  नाम पुकार रही थी और आगे बढ़ती जा रही थी


शायद वो इस सवाल का जवाव सिर्फ ये चाहती थी , हाँ माँ मैं ये रहा .. तू क्यों चिल्ला रही है मत चिल्ला ये मेट्रो है , लोग यहां सिर्फ गानो का शोर पसंद करते है बो भी सिर्फ सीधे उनके कानो में , लेकिन उस बेसुध और बदहवास सी माँ को ये जवाव कहीं  से नहीं मिला वो  लगातार सिर्फ शाहिद .. शाहिद.. चिल्लाती रही और भीड़ को चीरती डिब्बे को पार करती आगे बढ़ती जा रही थी | तभी एक स्टेशन आ गया और अपने कानो में संगीत का शोर सुनने वाले लोग उतरने लगे , वो बूढी माँ एक उतरते नौजवान लड़के के बीच में आ गई और वो जवान लड़का जोर से चिल्लाया..


कहाँ,कहाँ आ जाते हैं लोग ठीक से उतरने भी नहीं देते , वो दुत्तकारता हुआ उतर गया, शायद वो किसी माँ का शाहिद नहीं था या फिर उसकी माँ इस माँ की तरह नहीं थी, उस बूढी माँ की आवाज अब भी मेरे कानो में सुनाई पड़ रही थी ,मगर इसकी तीब्रता उतनी नहीं नहीं थी |

शायद उसे उसका शाहिद अभी मिला नहीं था , उतरने वाले उतर रहे थे और चढ़ने वाले चढ़ रहे थे


और मैं अब भी निशब्द सा ...

अपने अंदर उठते सवालो की तीब्रता से जूझ रहा था ,मैं खुद से सवाल पूछ रहा था | 


तू चुप क्यों रहा ? 

तूने उस बूढ़ी माँ  से  पूछा क्यों नहीं की तुम किसे ढूंढ रही हो ? 

ये शाहिद कौन है ? 

क्या तुम्हारा बेटा है ,

क्या वो खो गया है या फिर तुम खो गई हो ?

या फिर..

उस उतरते नौजवान लड़के की तरह तुम्हारा शाहिद भी तुम्हे धकियाता हुआ,

हमेशा के लिए छोड़ कर चला गया है

क्या में इस पत्थर के शहर की तरह पत्थर  का हो गया हूँ ?


या फिर कोई इंसानी रोबोट जो सिर्फ सुबह उठता  है , धक्के खाता हुआ मेट्रो से नौकरी पर जाता है वापिस अपने घर की तरफ भागता है और हर रोज यही रोजमर्रा की जिंदगी दोहराता है


क्या अगर तू गांव  की बस में होता ?

और तब ये माँ ऐसे चिल्लाती तू तब भी इस बेजार निशब्द भीड़ में शामिल हो चुप चाप खड़ा रहता ?


क्या ये पढ़े लिखे लोगो की  संवेदनहीन भीड़ यूँ ही चुपचाप एक दूसरे का मुँह ताकती खड़ी रहती



क्या तू नहीं पूछता माँ क्या हुआ ये शाहिद कौन है ?


ये सारे सवाल मेरे अंदर के पत्थर हो चुके इंसान को झकझोर रहे थे और मैं  अब भी निशब्द चुपचाप खड़ा था | तभी डिब्बे में रोज तरह शम्मी नारंग जी  की आवाज गूंजी ..


यह मालवीय नगर स्टेशन है और मैं इन सब सवालो को धकियाते हुए स्टेशन पर  उतर गया |

बेपरबाह दौड़ता , मशीनी सीढ़ी से चढ़ता हुआ इस शहर की रिवाजो और भीड़ में शामिल हो गया ....

(निशांत यादव )
                                                                      

                                                                  

4 comments:

  1. इसे पढ़ हे रहा था के आँखों के सामने पानी का एक पर्दा जैसे नज़र आया , जिस पे वो बूढी माँ को साक्षात देखने लगा मैं , कई सवालों के जवाब खुद मैं भी ढूंढने लगा , कैसे इस दिखावे की दुनिया में लोग अपने अंदर के " इंसान " को मरने देते है ( और वो भी सिर्फ इस लिए के - " दुनिया क्या सोचेगी !!! ") . . . हुह ,
    जैसे जैसे वो माँ कहानी के कलाकार क पास पहुंच रहे थी , मुझे लगा क वो मेरे पास आ रहे है मुझ से पूछ रही है - " शाहिद को देखा ?? " मैं बी निरूत्तर था , क्या बोलता . . . !!! आखिर मैं भी इसी मशीनी दुनिया का एक पुर्ज़ा मात्र हूँ. . .

    और जब मैं मशीनी सीढ़ी पे भागता हुआ वह से चला गया , आखों में छाया वो पानी का पर्दा टूट गया . . . आंसू क रूप में , और सवाल जस के तस रह गए . . . .

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  2. आपने बहुत जी मार्मिक चित्रण कर दिया है। स्तब्ध और निशब्द।

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