"डायरी के पन्नो के बीच कुछ कहती गुलाब की पंखुड़िआ "
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कुछ साल पहले तुम्हारे दिए गुलाब की पंखुड़िआ अब सूख गई हैं
तुम्हारी लिखावट के साथ डायरी के पन्नो में सहेज के रखा है इन्हे
तुम्हारी लिखावट के साथ डायरी के पन्नो में सहेज के रखा है इन्हे
जब भी डायरी के उन पन्नो को खोलता हूँ
पन्नो के बीच दबी ये पंखुड़िआ मुझे ताजी सी लगने लगती है
शायद अब भी ये तुम्हारी उंगलिओं की छुअन के इंतजार में है
एक पल का ही सही मगर मुझे भी तुम्हारे होने का भ्रम होने लगता है
लोग सही कहते है अहसास कभी मरते नहीं है
देखो न मरते तो फिर ये पंखुड़िया
तुम्हारी लिखावट के साथ डायरी के पन्नो में न होती ,
चलो कुछ दिन और जीता हूँ इन सूखी पँखुडिओं के साथ
सिर्फ तुम्हारे करीव होने के भरम में
पन्नो के बीच दबी ये पंखुड़िआ मुझे ताजी सी लगने लगती है
शायद अब भी ये तुम्हारी उंगलिओं की छुअन के इंतजार में है
एक पल का ही सही मगर मुझे भी तुम्हारे होने का भ्रम होने लगता है
लोग सही कहते है अहसास कभी मरते नहीं है
देखो न मरते तो फिर ये पंखुड़िया
तुम्हारी लिखावट के साथ डायरी के पन्नो में न होती ,
चलो कुछ दिन और जीता हूँ इन सूखी पँखुडिओं के साथ
सिर्फ तुम्हारे करीव होने के भरम में
निशांत यादव
बहुत सुन्दर चित्रण । संग्रहनीय रचना । सादर आभार।
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