Wednesday, 18 March 2015

ये पेड मुझे रोज छाँव देता है !

ये पेड मुझे रोज छाँव देता है !
बिना कुछ मूल्य लिए... निस्वार्थ !
ये उम्र में मुझसे छोटा है !
लेकिन मेरी सांसो को यही ढोता है !
दिन रात बिना थके !
मैं इससे रोज पूछता हूँ !
तुम्हारी उम्र क्या है !
किन्तु ये मौन है !
किसी महात्मा की तरह !                                                                                      
मैंने इसकी देह पर !
झूले की रस्सी के निशां देखे है !
ये बर्षो पुराने हैं !
अब इसकी डालिओं पर  झूले नहीं पड़ते !
जब तब कुल्हाड़ी ही चलती है !
हमारी जरूरतों की .....


....निशान्त यादव








6 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (20-03-2015) को "शब्दों की तलवार" (चर्चा - 1923) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपका धन्यवाद सर ...

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  3. उम्दा ………!!!

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  4. लाजवाब कविता पर ढेरों बधाईयां!

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  5. इंसान अपनी जरूरतों के आगे कहाँ देखता है प्राकृति का दर्द ...
    अच्छी रचना ...

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