Thursday, 27 April 2017
Friday, 21 April 2017
अंदाज़-ए-बयाँ 'ग़ालिब'
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और
बल्लीमाराँ के मोहल्लों की वो
पेचीदा दलीलों की-सी गलियाँ
सामने टाल के नुक्कड़ पे, बटेरों के क़सीदे
गुडगुडाती हुई पान की पीकों में वह दाद, वह वाह-वा
चंद दरवाजों पे लटके हुए बोसीदा-से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमियाने की आवाज़
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे
ऐसे दीवारों से मुंह जोड़ के चलते हैं यहाँ
चूड़ीवालान के कटरे की 'बड़ी बी' जैसे
अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले
इसी बेनूर अँधेरी-सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चराग़ों की शुरू होती है
एक क़ुरान-ए-सुख़न का सफ़ा खुलता है
'असद उल्लाह खाँ ग़ालिब' का पता मिलता है
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है
Subscribe to:
Posts (Atom)